आत्मस्वरुप
पिछली पोस्ट में हमने पढ़ा की संसार का स्वरूप क्या है वो नित्य निरंतर परिवर्तनशील और नाशवान है।अतः जो नाशवान को नष्ट होते हुवे देखता है वो अविनाशी है।वही हमारा स्वरूप है।जों देह है वो नष्ट होती है किंतु देह के भीतर जों देही है वो कभी नष्ट नहीं होता इसलिए उसे अनश्वर ,अविनाशी कहते है।गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग के नवीन वस्त्र ग्रहण करता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर या देह को त्याग कर नए शरीर में जाती है।हमने अपनी आसक्ति शरीर में कर ली और खुद को शरीर मान लेने से हम शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु समझते है।और इसलिए ही इस शरीर को पीड़ा होने पर हम दु:खी होते है और वृद्धावस्था का भय ,मृत्यु का भय हमे सताता है।जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मस्वरुप अनादि काल से है और हमारा कभी नाश नही हो सकता।और सच्चिदानंद का अंश होने से हम भी आनंद का ही स्वरूप है।हम इसलिए ही आनंद की खोज में भटकते है क्योंकि हम आनंद का अंश है।और आनंद का अंश संसार में आनंद ढूंढ रहा है।संसार जड़ है नश्वर है असत है जिसकी सत्ता है नहीं उसमे आनंद कहां से मिलेगा।अपने स्वरूप में स्थित होने भर की देर है तुरंत आनंद को उपलब्ध हो जाओगे।हालांकि हमे अपने स्वरूप में स्थित होने के लिए कोई प्रयत्न नही करना है क्योंकि उसकी केवल हमे विस्मृति हुई है।स्मृति हुई की तुरंत अपने स्वरूप का प्रकाश हो जाएगा।
क्रमश: …..ये ज्ञानयोग कहलाता है आगे लेख जारी रहेगा।कृपया कोई शंका हो तो कमेंट्स में लिखे।आपका हितैषी
© ठाकुर प्रतापसिंह राणा
सनावद (मध्यप्रदेश)