आते जाते रोज़, ख़ूँ-रेज़ी हादसे ही हादसे
सोचता हूँ, एक रोज़ अपना भी शहर देख लूँ,
जहाँ चौबीसों पहर रहता हूँ, वो घर देख लूँ।
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गुनगुनी धूप, चहकती गौरेया, चमकते मकान,
भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में, कभी सहर देख लूँ।
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आते जाते रोज़ यहाँ, ख़ूँ-रेज़ी हादसे ही हादसे,
कहीं कोई सुकूं की राह मिले, वो डगर देख लूँ।
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ईंट पत्थर सीमेंट सरिया सीसे, घुटन घर-दफ़्तर,
सोचता हूँ कभी बाहर निकल, दोपहर देख लूँ।
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बुराईयाँ गिनते रहता हूँ, आजू-बाजू चौतरफ़ा,
सोचता हूँ एक रोज़, अपना भी जिगर देख लूँ।