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25 Jan 2017 · 1 min read

आज मेरा मन डोले !

आकुल-व्याकुल आज मेरा मन , ना जाने क्यों डोले…..
विघटित भारत की वैभव को ले ले
भाषा इंकलाब की बोले
आज मेरा मन डोले !
कष्टों का चित्रण कर रहा व्यथित ह्रदय मेरा
सुदृढ दासता और बंधन की फेरा…..
उजड रही जीवों की बसेरा,
सुखद शांति की कब होगी सबेरा…..!
न्यायप्रिय शांति के रक्षक, त्वरित क्रांति को खोलें….
आज मेरा मन डोले…..!
भाषा इंकलाब की बोले…..!
वृथा ! भारत क्या यही भारत है
किस आखेट में संघर्षरत है
सतत् द्रोह बढता अनवरत है
नहीं कहीं मानवताव्रत है…?
संकुचित पीडित सीमाएँ कहती , पूर्ववत फैला ले
आज मेरा मन डोले !
भाषा इंकलाब की बोले
जीर्ण – शीर्ण वस्त्रों में रहकर
वर्षा- ताप- शीतों को सहकर
चना चबेना ले ले , भूखों रहकर…..
स्वदेश भक्ति न छोडा, प्राण भी देकर
यशगाथा वीरों की पावन, नयन नीर बहा ले….
आज मेरा मन डोले…..!
भाषा इंकलाब की बोले…….
उथल- पुथल करता मेरा मन……
ना जानें क्यों डोले
भाषा इंकलाब की बोले…….

अखंड भारत अमर रहे
वन्दे मातरम्
जय हिन्द !

कवि पं आलोक पान्डेय

Language: Hindi
Tag: गीत
1 Like · 351 Views
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