आज की शाम।
आज की शाम।
दिन भर इंतजार करने के बाद निहित बिस्तर पर कब में लेट गया उसे पता भी ना चला। वह कब से निहारिका का इंतजार कर रहा था और अब तो इंतजार करते-करते मोबाइल भी हाथों से छूटने लगा था। कभी व्हाट्सएप तो कभी टेलीग्राम पर उनको ऑनलाइन ढूंढ रहा था। मिल जाए ऑनलाइन तो कुछ सुन लूं… कुछ कह दूं… तो सांसों को ऊर्जा मिले। कभी आंखे मुंदनें लगती तो कभी अचानक से खुल जाती कि कहीं उनका कोई मैसेज तो नहीं आ गया। उनको मन सोचे चला जा रहा था। नियंत्रण तो कभी का खो चुका था। अब न दिल मेरा रह गया था और न ही मन। ये क्या हुआ? क्या कर रहे है? क्या गलत? क्या ठीक? क्या होगा आगे? मेरी वजह से कहीं कोई गड़बड़? कहीं किसी पर कोई प्रभाव तो ना पड़ेगा? अभी तो बच्चों ने जीवन में नन्हें नन्हें कदमों से चलना ही सीखा है क्या होगा अगर उनका मेरी वजह से जरा भी निरादर हुआ या समस्या हुई? क्या माफ कर सकूंगा मैं अपने आपको? मैं गलत नही हूं और न होने दूंगा? इसी उधेड़बुन में लगा था मन कि तभी अचानक उनका मैसेज आया कि क्यूं उलझन में हो निहित। क्यूं हो इतने बेकरार? क्यूं तड़पते हो इतना? किस सोच में पड़े रहते हो? क्यूं घबराते हो? क्यूं सोचते हो इतना? मुझे देखो! मैं हूं तुम्हारी निहारिका सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी। मैं हूं ना तुम्हारे साथ बिल्कुल साथ। हमेशा हमेशा हमेशा। तुम्हें कुछ न होने दूंगी निहित। यह कहकर वे बिल्कुल पास आकर बैठ गई। इतनी पास की उनकी सांसे भी मैं सुन पा रहा था। तभी उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और बोली तुम घबराया न करो, मैं हूं ना। तभी अचानक आंखे खुली तो देखा शाम के 6 बज आए थे। कमरे में पंखा धीमे- धीमे चल रहा था। आंखे मूंदी- मूंदी सी थी और मन था कि सोचे चला जा रहा था। और यही कह रहा था कि ये पल थोड़ा और रूक जाता लेकिन सत्य यह कि ना कोई निहित ना कोई निहारिका ना दूर ना पास। एक शांति, बिल्कुल शांति।
सादर।
जीतेन