#आज़ादी
✍ ( लघुकथा )
■ #आज़ादी ■
दूर से देखा तुम कार के ऊपर खड़े थे। तुम्हारे हाथ में माईक था। तुम क्या बोल रहे थे यह तो सुनाई नहीं दे रहा था परंतु, तुम्हारे चारों ओर खड़ी भीड़ के आज़ादी-आज़ादी के नारे दूर-दूर तक गूंज रहे थे। दीदी पीछे न बैठी होती तो स्कूटी को एक तरफ खड़ी करके मैं तुम्हारे पास पहुंच जाती।
“यह नौकरी भी गई हाथ से बिंदु!” दीदी के स्वर में निराशा और खीज दोनों थीं, “इसमें काम का बोझ कम और पैसे अधिक मिलने वाले थे।”
मैंने पीछे मुड़कर देखा। दूर तक यातायात अवरुद्ध हुआ पड़ा था और सामने तुम थे। बीच में वही गाड़ियों की लंबी कतार।
बाईं ओर आटोरिक्शा में एक युवा माँ बच्चे को गोद में लिए सुबक रही थी। दीदी के पूछने पर उसने बताया कि बच्चे को बुखार है। दाईं तरफ कार में बैठा व्यक्ति गाड़ी का इंजन बंद करके स्टीरियो पर गाने सुन रहा था।
“बिंदु, कुछ कर।” जबसे पिता गए, घर के लिए सब कुछ दीदी ही कर रही थी। और आज?
आधा घंटा लगा मुझे स्कूटी को गली की ओर मोड़ने में।
“यह गली कहाँ ले जाएगी री?”
“कहीं भी ले जाए दीदी। परंतु, इस अंधी कैद से तो छुटकारा मिलेगा।”
तुम्हें जेल से आज मुक्ति मिले अथवा कल। मैं अब मुक्त हूँ क्योंकि मेरे सारे बंधन तुम्हारी ‘आज़ादी’ ने खोल दिए हैं।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२