आजकल गरीबखाने की आदतें अमीर हो गईं हैं
आजकल गरीबखाने की आदतें अमीर हो गईं हैं
दाल रोटी अब नसीब कहाँ ख्वाहिशें पनीर हो गईं हैं
कहाँ तो मुनासिब ना थी दो वक्त की रोटी जुटा पाना
वो भूरी सी कुतिया अब रोज खाने में सीर हो गई है
मखमल सी चादर ओढ़कर बैठे हैं आसन सजा कर जो
फुटपात पर पड़ी मैली चादर उनके रहिशी की मुखबीर हो गई है
तुम्हे लगता हो कि इस उत्थान से जल भून गया हूँ मैं
कितनों की ही रहिशी सरेबाजार फकीर हो गई हैं
इस मुफ्तखोरी ने छीन लिया है चेहरे के श्रम कणों को
गरीब होना और गरीब बनकर रहना एक नज़ीर हो गई है
बात ये नहीं कि उनकी ख्वाहिशें पनीर हो गईं हैं
बात यह है कि ये गरीबी उनके माथे की लकीर हो गई हैं ।।
भवानी सिंह “भूधर”
बड़नगर, जयपुर
दिनाँक:-०२/०४/२०२४