आग और धुआं
मैं ज्योति उजाले के साथ आयी
सब और उजाला छा गया
मैं ज्योति जलती रही चहुँ और
उजाला ही उजाला ……..
सबकी आँखे चुंध्याने लगीं
जब आग थी ,तो उजाला भी था
उजाला की जगमगाहट भी थी
जगमगाहट में आकर्षण भी था
आकर्षण की कशिश मे, अँधेरे जो
गुमनाम थे झरोंकों से झाँकते
धीमे -धीमे दस्तक दे रहे थे।
उजाले मे सब इस क़दर व्यस्त थे कि
ज्योति के उजाले का कारण किसी ने नहीं
जानना चाहा, तभी ज्योति की आह से निकला, दर्द सरेआम हो गया ,आँखों से अश्रु बहने लगे
काले धुयें ने हवाओं में अपना घर कर लिया, जब तक उजाला था सब खुश थे।
उजाले के दर्द को किसी ने नहीं जाना
जब दर्द धुआँ ,बनकर निकला तो सब
उसे कोसने लगे।
बताओ ये भी कोई बात हुई
जब तक हम जलते रहे सब खुश रहे ।
आज हमारी राख से धुआँ उठने लगा तो
सब हमें ही कोसने लगे ।
दिये तले अँधेरा किसी ने नहीं देखा
आग तो सबने देखी पर आग की तड़प
उसका दर्द धुआँ बनकर उड़ा तो उसे सबने कोसा
उसके दर्द को किसी ने नहीं जाना ।