आग-ए-अलतुआ
आग-ए-अलतुआ
लफवाजियों में आजकल वो दम नहीं रहा जो कभी हमारे दौर में हुआ करता था उसमे भी हर बात कायदे की हुआ करती थी भले किसी की टांग खींचने का मसला हो या फिर किसी कमसिन की ज़वानी की चर्चा हो जो भी था एक हद के दरमियाँ हुआ करता था.. लेकिन आज वो अड्डे और चोगड्डों ने हाथ के अलतुए ने इस दौर में आ के उन्हें वीराना कर दिया कभी वो भी दौर था जो लफवाजियों में काफी रात गुज़र जाया करती थी शाम होते ही चोगड्डों के अड्डे रौनक मंद हो जाया करते थे आज तो बस सिर्फ यादें भर रह गई.. और मोहल्लों के चोगड्डों की रोनके खो गई..कभी आग भी अगर किसी के चूल्हे में भभक जाए तो मोहल्ले के हर इंसा को पता चल जया करती थी.. जैसे कल कोसो दूर चार जवा जिस्मजादियों को कालीज के मेन गेट से अंदर ना आने का कह कर बाहर से ही रुखसत कर दिया वमुश्किल से आधा घंटा ही हुआ होगा लेकिन उस बात की आग पूरे हिन्दोस्तान में फेल चुकी थी..शाम होते होते हिजाब के जिस्म सड़को पे समंदर के पेंगुइ के समूह की तरह सड़को पर दिखने लगा था..चोगड्डे और अड्डे आंदोलन कारियों की तस्करीफ से ढक गए और रात होते होते तक शहर के हर चौक चौराहे की दसा ही बदल गई.. हर जींस और टीशर्ट में घूमने वाली इस्लाम की हसीनाए हिजाब की हद में सिमट के आवज़ की बुलंदगी के शोर में गला फाड़ने लगी थी.. हरि हर चाचा से लेकर मौलाना मसूद चच्चा की इंसानियत हिज़ाब की इज्जत में सिमट गई थी..और बात को मज़हब का घी डाल कर भड़काने में राजनितिक पार्टियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी..जिस मुल्क में हर बात की आजादी हो तो कानून की भी रज़ामंदी का अमल बेहद ज़रूरी होता हैं..
कल ही इस अलतुए पर एक मोहतरमा ने हुनकार भरते हुए कहा था
अगर कोई हमारी इज्जत (हिज़ाब) को हाथ भी लगाएगा उसके हांथ काट लिए जाएंगे अगर हमें उसके लिए समशीर भी उठानी पड़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे ये वही मोहतरमा थी जो पिछले वरस तीन तलाक से मिली आज़ादी के जश्न भी मना चुकी थी और सरकार की बलाये ले चुकी थी..खैर हमारे ही मुल्क में गिरगिटों की कमी नहीं हैं जो अपने फायदे के लिए काले पिले हो जाया करते हैं..
मामला इतना पेचीदा या इतना तुगलकी नहीं था जिसे हिन्दोस्ता की अमन को बिगाड़ने में हीजाब को अंगार बना के झोक दिया गया..मसला साफ हैं बात हिजाब की आड़ में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके चेताया जा रहा हैं.. बात कुछ और हैं मुद्दा तो औरत के हिजाब को बनाया जा रहा हैं..खैर चेतना और चेताने को ध्यान में रख के चौक चौराहों और चोगड्डों पर जमावड़ों का सेलब का नतीजा अब ना तो वो लाफवाजियों की महफ़िलों से होता हैं और ना ही अड्डों पे बैठ कर गप वाजियों से होता हैं.. आजकल जितना ये अलतुआ खुराफ़ातियों के हाथ में होता हैं उतना ही आज के इस दौर में खुराफ़ात होता हैं..
(अलतुआ = मोबाईल फोन )