आखिर कितनी बार मरुँ….
कब तक आँखें सजल करूँ,
बेबस होकर सिर धुनने में !
आखिर कितनी बार मरुँ,
साँसों का ताना बुनने में !!
झोंपड़ियों में दर्द भले,
बेशक सदियों से ठहरा हो !
चाहे इनका आर्त्तनाद,
बेशक कितना भी गहरा हो!!
पर,राजमहल की अट्टहास,
बाधा बनती है सुनने में !!
आखिर कितनी बार मरुँ………
रोजी रोटी बंद पड़ी है,
घर के अंदर भूख बड़ी है!
पार करुँ दहलीज यदि तो,
निश्चित बाहर मौत खड़ी है!!
कितनी हिम्मत और जुटाऊँ,
अपनी मृत्यु चुनने में !!
आखिर कितनी बार मरुँ…….
✍ कवि लोकेन्द्र ज़हर