आकृति (बाल कहानी)
आकृति (बाल कहानी)
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आकृति की उम्र करीब 8 साल की होगी और उसके पापा को घर में कबूतर लाकर पाले हुए मुश्किल से दो ढाई महीने हुए होंगे। कबूतर का नाम आकृति ने बहादुर रखा है। बहादुर आकृति से इतना हिल -मिल गया है कि एक मिनट के लिए भी आकृति अगर इधर-उधर हो जाए तो वह परेशान होने लगता है।
बहादुर के रहने के लिए आकृति के पापा ने एक बड़ा सा पिंजरा बनवा रखा है ।दिन भर बहादुर इधर-उधर घूमता रहता है लेकिन शाम को जब आकृति पिंजरे का दरवाजा खोलती है तो बहादुर उसमें चला जाता है। बहादुर को आकृति की आंखों में झांक कर देखना और आकृति को बहादुर से घंटो बातें करते रहना बहुत अच्छा लगता है ।पता नहीं कौन से जन्म का कौन सा रिश्ता इन दोनों के बीच था ।जब से बहादुर आया है ऐसा लगता है घर का एक सदस्य बन गया। कई बार आकृति को देख कर लगता है कि वह पक्षियों की भाषा समझती है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। पक्षियों के पास सिवाय गुटर- गूं के और कोई भाषा नहीं होती ।
एक दिन आकृति ने बहादुर से पूछा “मैं कैसी लग रही हूं ? “बहादुर बोला “गुटर गूॅं ” आकृति गुस्सा हो गई।…. और कुछ आता ही नहीं कुछ भी पूछो”.. कैसी लग रही हूं.. बहुत समझाने के बाद बहादुर ने हां की मुद्रा में सिर हिलाना सीख लिया। अब दोनों की दोस्ती और भी बढ़ने लगी ।
लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंजूर था। एक दिन आकृति जब सुबह बिस्तर पर सो रही थी तभी उसके कानों में पापा की आवाज सुनाई दी। पापा मम्मी से कह रहे थे कि आज कबूतर को मार कर इसका मांस पका लिया जाए , इतवार भी है। खूब मजे से खाएंगे। सुनकर आकृति की तो सांस भीतर की भीतर रह गयी। यह क्या हो रहा है ?.. बस बिस्तर से उठी और सीधे जाकर बहादुर के पास बैठ गई। बहादुर को सीने से लगा लिया।
आरती अब रो रही थी। उसे लग रहा था अब उसकी बहादुर से यह थोड़े ही समय की मुलाकात रह गई है ।जैसी अनहोनी की आशंका थी, वैसा ही हुआ ।थोड़ी ही देर में पापा कबूतर को मारने के लिए छुरी लेकर आ गए। आकृति घबरा गई। उसने बहादुर को और भी कस कर अपने सीने से चिपका लिया… बहादुर मैं तुझे मरने नहीं दूंगी.. पापा से कहकर तुझे माफ करवा दूंगी.. वह बुदबुदाई। पापा ने आते के साथ ही सीधे आकृति से कहा “लाओ, कबूतर मुझे दे दो आज इसे पकाना है।”
“पापा कैसी बातें कर रहे हैं आप ?.. बहादुर मेरा भाई है .मैं इसके लिए राखी लेकर आई हूं.. देखो मैंने उसके गले में राखी बॉंधी है”
” यह क्या फिजूल की बातें कर रही हो आकृति ?भला पक्षियों को भी कोई भाई बनाता है ? कबूतर मुझे दे दो”।
” पापा इन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है जो हम इन्हें मार कर खाते हैं ? यह कितने अच्छे हैं.. बहादुर मुझसे कितनी बढ़िया-बढ़िया बातें करता है”.. आकृति अपने में खोई हुई बोले जा रही थी ।
इस बार बिना देरी किए पापा ने बहादुर को छीनने की कोशिश की ।आकृति बहादुर को गोद में छुपाए हुए भागी और इस बार उसने बहादुर को हवा में उछाल दिया और जोर से बोली बहादुर उड़ जा ! अब यहां लौटकर मत आना । मुझसे मिलने के लिए भी मत आना, वरना यह लोग तुझे मार डालेंगे।”… बहादुर की आंख से आंसू गिरे। आकृति ने उनको अपनी हथेलियों पर भर लिया। बहादुर उड़कर चला गया और फिर कभी नहीं लौटा ।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451