अश्रु तुम पानी नहीं हो
आँसुओं!तुम आत्मबल खोना नहीं।
जीर्ण होकर व्यर्थ में रोना नहीं।।
आँसुओं, तुम तो सदा निष्पाप हो।
वेदना का गूँजता आलाप हो।।
तुम कमलदल का सरोवर शांत सा।
दैन्य दुख में नित्य होता जाप हो।।
प्रेयसी के प्रेम में होकर व्यथित।
आँख का काजल कभी धोना नहीं।।
आँसुओं, तुम आत्मबल खोना नहीं।
जीर्ण होकर व्यर्थ में रोना नहीं।।
दर्द का सागर उठे यदि देह में।
या कभी तुम हार जाओ नेह में।।
पीठ पीछे दुश्मनों की घात हो।
या बिखरता मन रहे संदेह में।।
तुम परम पावन घटक पीयूष के।
मृत्यु के आगोश में सोना नहीं।।
आँसुओं, तुम आत्मबल खोना नहीं।
जीर्ण होकर व्यर्थ में रोना नहीं।।
अश्रुओं, तुम देवदीपों में बहो।
देह के दुख-द्वन्द दावानल सहो।।
याचना करना तुम्हें भाता नहीं।
बात आत्मा की सजग होकर कहो।।
जीत की तुमको नहीं है लालसा।
हार से लाचार तुम होना नहीं।।
आँसुओं, तुम आत्मबल खोना नहीं।
जीर्ण होकर व्यर्थ में रोना नहीं।।
देवदीप :- नेत्र (पु., तत्सम)
गीताधार मापनी:- 2122 2122 212
जगदीश शर्मा सहज
२३/०२/२०२०