अहीर छंद (शोषित कवि का मर्म )
शोषित कवि का मर्म
कुण्डल छंद 22 मात्राएँ
12+10=22
6+3+3// 6+ 2+2
यति के पहले त्रिकल
अंत में गुरू गुरू।
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हो जहान में महान, तुम दयालु दानी।
तुम हो गिरिराज शिखर,तुम सागर पानी।
तुम दिनकर ताप प्रबल,सबल धवल वाणी।
तुमसे ही व्याप्त हुई, कविता कल्याणी।
जिसको दो अर्थ लाभ,वो यही बखाने।
सबसे हैं श्रेष्ठ आप,वह ऐसा माने।
संयोजक आप बड़े, नीच कुटिल कामी।
लालच में बना लिया,हमको अनुगामी।
बुलवाया बार बार, कृपा कीन्ह भारी ।
आते जो दिया भेंट, हम हुए अभारी।
लेकर पेमेंट बड़ा, हमें कम टिकाया।
ऊपर से आते हुए, रौब भी दिखाया।
कितने में बात पटी,कितना कब खाया ।
इसका तो भेद कभी, हमने ना पाया।
ऊँचनीच गलत सही,बन बैठे दादा।
ओढ़ा आदर्श भरा, जिंदगी लबादा।
छोटे को बड़ा बता, हाट में भुनाया ।
चमचों ने चरण चूम,तुमको चमकाया।
रहा नहीं कभी नेक, कविता से नाता।
चोरी का माल गला, बने हो विधाता।
सत्य बात पची नहीं, सिर्फ झूठ जोड़ा।
पूछ लिया मानदेय,साथ तभी छोड़ा।
जीवन ही बीत गया, खुली नहीं आँखें।
बोये जो बीज हुईं,उनकी अब शाखें।
छाया की आस लगा, उन्हें ना निहारो।
पीढ़ी यह नई नई,जरा तो विचारो।
प्रतिभा का मान करो,यों मत दुत्कारो।
शोषण के नये जाल,इन पर मत डारो।
बने रहो यहाँ वहाँ, शोभा की बिंदी।
माने उपकार बड़ा,खास यही हिंदी।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
15/11/22