अहसास
बारिश मूसलाधार थी पर राजसिंह के कदम शहर की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। काले दैत्य-मेघों की गड़गड़ाहट दिल में दहशत पैदा करती थी परंतु राजसिंह मानो इन सबसे बिल्कुल अंजान ही भागा जा रहा था। इस समय उसका लक्ष्य केवल और केवल शहर था। बादल फटे जा रहे थे लेकिन इधर राजसिंह का हृदय फटा जा रहा था। राजसिंह दिवानपुर का तृतीयक भूमिहीन किसान था.. रोज कमाना रोज खाना… बस उसकी यही आजीविका थी। फिर भी वह अपनी पत्नी मीना और पाँच वर्षीय पुत्र दीपू के साथ अपने छोटे से कच्चे घर में रहता था।
एक दिन राजसिंह गाँव के नंबरदार बदलू चौधरी के खेत में फसलों की निराई कर रहा था… अचानक उसे मीना की आवाज सुनाई दी। मीना बदहवास सी उसे पुकारती हुई दौड़ी चली आ रही थी। आशंका से उसका मन घबरा गया… कहीं जीतू साहू अपने पैसे तो माँगने नहीं आ गया… उसकी बदतमीजियों से सारा गाँव जाहिर था… कहीं उसने मीना के साथ…. नहीं… नहीं कहते हुए राजसिंह भी मीना की ओर दौड़ पड़ा।
“दीपू के बापू, दीपू पेट पकड़कर बुरी तरह चिल्ला रहा है… जरा जल्दी चलो… देखो तो उसे क्या हो गया है..?” “भागवान यहां आने से पहले उसे बालू डाॅक्टर के पास न ले जाती…” घर की ओर दौड़ते हुए राजसिंह बोला। “लेकर गई थी.. उसके पहले ही पैसे नहीं गए… कहने लगा… नहीं भाभी… पिछला तो चुका नहीं… आ गई लेकर… जानती हो… हजार रुपये हो गए हैं… कहाँ तक देखूँ…. ” राजसिंह के पीछे दौड़ती सी मीना बोली।
घर आने पर राजसिंह ने अपनी पगड़ी से पचास रुपये निकाले.. जो उसे सुबह बदलू ने कुछ सामान लाने के लिए दिए थे… उन्हें लेकर बालू डॉक्टर के पास दीपू को ले गया।
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” राजसिंह… मेरी माने तो दीपू को कस्बे के प्राइवेट अस्पताल में ले जाओ…. मैं दर्द खत्म होने की दवाई दे रहा हूँ… मुझे तो दीपू के पेट में गड़बड़ी लग रही है…” डॉक्टर ने दीपू का पेट चैक करते हुए कहा।
डर गया राजसिंह.. “कैसी गड़बड़ी.. डाक्टर साहब..”
“वो अल्ट्रा साउंड के बाद पता चल ही जाएगी…. फिलहाल मैं दवाई दे रहा हूं… कस्बे तक जाने में राहत मिल जाएगी..।” डॉक्टर ने दवाई दे दी… राजसिंह दर्द से तड़पते दीपू को लेकर घर आ गया…. दवाई लेने के बाद कुछ देर दर्द से तड़पते हुए दीपू सो गया।
” अब क्या होगा जी? ” मीना ने पूछा।
“कल देखते हैं। ”
इसी तरह दीपू को दर्द में तड़पते पाँच दिन हो गए… लेकिन राजसिंह कस्बे तक नहीं जा पाया… कारण था पैसे की समस्या… हर जगह फिर गया था राजसिंह… सबने अपने पुराने पैसे माँगते हुए राजसिंह को टरका दिया। राजसिंह ने अब दीपू को सरकारी अस्पताल में ले जाने की सोची। दीपू पाँच दिन से दर्द में बिलबिलाते हुए दोहरा सा गया था… उसकी आँखें गड़ गई थी…. उसे देखकर राजसिंह का कलेजा बाहर को आता था… कहीं लड़का हाथ से निकल… यह सोचते ही उसकी साँसें ऊपर नीचे होने लगती थी।
सरकारी अस्पताल में पता चला कि दीपू के पेट में ट्यूमर है। आॅपरेशन होना था, लेकिन उसके लिए पचास हजार की आवश्यकता थी। गरीब राजसिंह इतने पैसे कहाँ से लाता…? दीपू को दर्द से बिलबिलाते देखकर राजसिंह और मीना बेहाल होते जा रहे थे। राजसिंह अस्पताल के बाहर आकर बैठ गया… “अगर एक सप्ताह से पहले आॅपरेशन नहीं हुआ तो जान पर बन सकती है।” डॉक्टर के ये शब्द राजसिंह के मस्तिष्क पर हथौड़े की तरह पड़ रहे थे।
तभी उसे याद आया कि उसका बचपन का मित्र अजय चौधरी शहर में ही रहता है। ट्रांसपोर्ट का काम है उसका। अच्छी कमाई है उसकी। शायद वह मेरी मदद कर सकता है। यह सोचते ही राजसिंह तुरंत मीना को दीपू के पास छोड़कर खराब मौसम में ही शहर की तरफ दौड़ पड़ा। खराब मौसम के कारण शहर के लिए कोई बस या अन्य वाहन नहीं था… आठ किमी ही तो है शहर… यह सोचकर मूसलाधार बारिश में ही राजसिंह ने शहर की ओर दौड़ लगा दी।
शाम के छ: बजे थे। अजय सिन्हा अपने आलीशान मकान के एक कमरे में बैठे चाय-पकौड़े का आनंद ले रहे थे। तभी डोरबेल बज उठी। अजय सिन्हा ने नौकर को इशारा किया और उसने दरवाजा खोला तो देखा कि एक गरीब सा आदमी सिर पर पगड़ी बांधे, फटेहाल धोती-कुर्ता पहने दरवाजे पर खड़ा था।
“क्या बात है भाई? क्या चाहिए?” नौकर ने पूछा।
“म… मेरा नाम राजसिंह है, मैं दिवानपुर से आया हूँ। अजय से मूलाकात हो जाएगी…?” पूरी तरह भीगे बदहवास राजसिंह ने कहा। नौकर ने राजसिंह को ऊपर से लेकर नीचे तक निहारा और फिर बोला.. “भाई तुम्हारा मालिक से क्या….” ” मैं उसका बचपन का मित्र हूँ।” राजसिंह ने बीच में ही नौकर की बात काटते हुए कहा। नौकर और भी सवाल-जवाब करना चाहता था… क्योंकि वह राजसिंह की बचपन के मित्र वाली बात पचा नहीं पा रहा था… कहाँ ठाट-बाट वाला उसका मालिक और कहाँ वह फटेहाल राजसिंह… बोल ही तो पडा वह…” तुम्हारा और मालिक का क्या मेल…क्या समानता?” राजसिंह गंभीर हो गया… “समानता है… मेरे कदम भी जमीन पर हैं और तुम्हारा मालिक भी जमीन पर ही चलता है…” लेकिन दीपू को याद करते ही राजसिंह ने अजय से मिलने के लिए काफी अनुनय-विनय किया। नौकर ने अजय सिन्हा को बताया। अजय बाहर ही आ गया। उसने राजसिंह को बरामदे में ही बिठा दिया और पूछने लगा कि क्या बात है। राजसिंह ने अजय को गौर से देखा। वह समझ चुका था कि अब अजय की गरदन टेढ़ी है लेकिन फिर भी उम्मीद से उसने अजय को जल्दी-जल्दी सारी बात बताई और उससे पचास हजार रुपए मांगे। अजय ने साफ इंकार कर दिया…. राजसिंह उसके पैर पकड़ बैठा और गिड़गिड़ा पड़ा…. “अजय.. ऐसा न कर… मेरा बच्चा बिना इलाज के मर जाएगा… मैं तेरे आगे अपनी नाक रगड़ता हूँ… मैं…. मैं तेरे पैसे मय सूद लौटा दूंगा… ।” हँस पड़ा अजय….. “सारी जिंदगी जमींदारों के तलवे भी चाटेगा न… तब भी पचास तो क्या पच्चीस भी न लौटा पाएगा… और सूद की तो बात ही न कर… और देख मेरे पास इतना वक्त नहीं है.. कि मैं तुझ भिखमंगे से उलझूं… चलता हूँ…. हां… दोबारा मत आना… तेरी भाभी को भिखारियों से सख्त नफरत है… ” इतना कहते ही अजय सिन्हा गरदन को उचकाकर और नौकर को इशारा करते हुए मकान में अंदर चला गया। राजसिंह अब भी उम्मीद से खड़ा रहा… शायद अजय अब भी लौट आए… पर पत्थर कभी नहीं पिघलते…. नौकर राजसिंह के पास आया.. लेकिन राजसिंह ने उसे हाथ से रोक दिया और आँखों में चकनाचूर हुई उम्मीद के आँसू लेकर उस आलीशान मकान से बाहर निकल गया… नौकर बहुत देर तक भीगी आँखों से राजसिंह को जाते हुए देखता रहा… शायद राजसिंह की बेबसी ने उसके दिल को भी झकझोर दिया था…
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कई वर्ष बीत चुके थे..। पैसे की कमी ने राजसिंह से उसका दीपू छीन लिया था… खुद को संभालने और मीना को संभालने में राजसिंह को काफी वक्त लग गया था… इस घटना ने अपने दस वर्ष कब बिता दिए थे… पता ही न चला था… इन दस वर्षों ने राजसिंह को अमीर बनने का जुनून और एक प्यारी सी बच्ची अंजलि दे दी थी। राजसिंह ने जमींदार बदलू चौधरी के यहाँ बहुत मेहनत की। कुछ पैसे जुटाए और राजसिंह ने एक भैंस खरीद ली। राजसिंह ने अपने कच्चे मकान पक्के कर लिए। उसकी मशीन जैसी मेहनत को देख गाँव के सभी छोटे-बड़े हैरान थे। उसने सभी के पैसे चुका दिए थे। गाँव में आने वाले दुष्यंत डाकिए ने उसे सलाह दी कि अगर वह शहर में अपनी डेरी खोल ले तो अच्छी कमाई कर सकता है… राजसिंह को बात जँच गई। उसने गाँव के प्रतिष्ठित जमींदारो-नंबरदारों की जमीन पट्टे पर ली और दिन रात जी-तोड़ मेहनत की। उसकी मेहनत रंग लाई और अपनी पत्नी मीना की सलाह के बाद राजसिंह ने एक दिन गाँव छोड़ दिया और शहर में जमीन खरीद ली… वहां उसने सरकार की मदद से एक अपना डेरी फार्म खोल दिया। कुछ ही वर्षों में राजसिंह ने शहर में अपना एक आलीशान मकान बना दिया। उसकी डेरी चल निकली… धीरे-धीरे अब वह एक बेकरी का भी मालिक बन चुका था। अपनी पत्नी मीना और दस वर्षीय अंजलि के साथ वह शहर में हँसी-खुशी जीवन गुजारने लगा था लेकिन दीपू की याद उसे रह-रहकर आती थी। अजय सिन्हा का कठोर व्यवहार उसकी आँखों के आगे तैरने लगता था… वह उसके कड़वे बोल भूल नहीं पाया था। वह गरीब और दुखी लोगों को बिना ब्याज के ही कर्ज दिया करता था… जिससे उनके सामने वह समस्या न बन सके, जिसे वह भुगत चुका था… वह नहीं चाहता था कि पैसे की कमी के कारण किसी को कोई अपना न खोना पडे़।
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इंसान की तराजू का पलड़ा इधर-उधर हो सकता है लेकिन भगवान की तराजू के पलड़े हमेशा बराबर ही रहते हैं….उसके सामने किसी की घूस नहीं चलती… वह इंसाफ की तराजू का संतुलन बरकरार रखता है… जो जैसा करता है वैसा भरता है… जो जैसा बोता है… वैसा ही काटता है… अजय सिन्हा के साथ भी ऐसा ही हुआ…. उसकी ट्रांसपोर्ट कंपनी पर उसके ही सालों ने कब्जा कर लिया…. उन्होंने उसकी कंपनी को इतना लूटा कि अजय भारी कर्जे में दब गया…. उसके साले उसकी कंपनी की सभी गाड़ियों को बेच-बाचकर भाग गए… उसके सालों ने उसे ऐसा मझधार में छोडा कि उसकी कंपनी बिक गयी और उसका आलीशान मकान भी गिरवी रखा गया। अत्यधिक कर्जे ने उसे बरबाद कर दिया और एक दिन ऐसा आया कि वह अपनी पत्नी व बच्चों के साथ सड़क पर आ गया। उसका घर नीलाम हो गया और नीलामी की सारी रकम कर्जे में चली गई। उसकी पत्नी यह दुख सहन न कर सकी। अपने भाइयों को ही अपनी बरबादी का कारण जानकर वह सदमे में आ गई। उसे हार्ट अटैक आ गया। अब अजय सिन्हा को काटो तो खून नहीं। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उसने अपनी पत्नी को सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया।
आज अजय सिन्हा की पत्नी को भर्ती हुए सात दिन हो चुके थे लेकिन उसकी पत्नी में कोई सुधार नहीं आया था। आता भी कैसे…. उसके दिल की बाई-पास सर्जरी होनी, जिसके लिए एक-डेढ़ लाख रुपये चाहिए थे। कभी लाखों-करोड़ों में खेलने वाले अजय सिन्हा के पास आज इतने रुपये नहीं थे कि वह अपनी पत्नी का आप्रेशन करा सके। उसने सालों से पैसे मांगे… लेकिन अपनी बहन बीमार है… यह भी न सोचते हुए उन्होंने अजय को फूटी कौड़ी देने से भी मना कर दिया। वह अपने एक-एक रिश्तेदार से पैसे मांग चुका था लेकिन उसे लगभग सभी लताड़ चुके थे। डॉक्टर ने उसे चेतावनी दी कि अगर आप्रेशन में देरी हुई तो कुछ भी हो सकता है। अजय सिन्हा लगभग रो ही पडा… इस तरह से वह अपनी पत्नी को खोना नहीं चाहता था… वह दुखी मन से अस्पताल के बाहर बैठा सोच-विचार में मग्न था। जिन सालों को सिर पर बिठाया…. वही उसे बर्बाद करके सड़क पर ला चुके थे। उसके दुख में आज वही उसे आँखें दिखा रहे थे। इतने पैसे कहाँ से लाऊं… यह सोचते-सोचते उसे वहां बैठे आदमियों से पता चला कि शहर में ‘दीपू डेरी’ का मालिक ऐसे व्यक्तियों की सहायता जरूर करता है जो नि:सहाय होते हैं….. अजय को आस बँधी और वह पूछते-पूछते ‘दीपू डेरी पहुँच गया। वहाँ उसे पता चला कि डेरी मालिक अभी-अभी अपने घर गए हैं। उसने शीघ्रता से घर का पता लिया और टैंपो पकड़ने के लिए सड़क पर आ गया…. तभी बादल गरजने लगे और बारिश शुरू हो गई…. वह सड़क पर खडा बारिश में भीगता रहा और टैंपो का इंतजार करने लगा…. वह बारिश से बचकर समय नहीं गँवाना चाहता था। उसके लिए अब एक एक पल कीमती था। समय पर पैसे न मिले तो उसकी पत्नी मर….. नहीं नहीं….. अब वह समय नहीं गँवाएगा…. पता नहीं क्यों… पर उसे विश्वास था कि दीपू डेरी के मालिक के यहां उसकी पुकार अवश्य सुन ली जाएगी। बहुत देर हो गई थी… बारिश के कारण कोई टैंपो या रिक्शा भी वहां से नहीं गुजरे थे। तभी उसे एक टैंपो दिखाई दिया….. काफी दूर था…. अजय उसे पकड़ने के लिए भाग पड़ा…. अचानक उसका पैर फिसला और वह सड़क पर दूर तक फिसलता चला गया…. टैंपो चला गया था…. झल्लाहट से उसने सड़क पर हाथ मारा और उठने लगा…. उसकी घुटने के पास से पैंट फट चुकी थी… शर्ट भी कहीं उलझकर फट चुकी थी… कोहनी और घुटनों से शायद खून भी रिसने लगा था लेकिन उसने इन सबकी परवाह न की…. उसे जल्द से जल्द ‘दीपू डेरी’ वाले से मिलना था…. उसने खुद को संयत किया और तेज बारिश और कड़कती बिजली की परवाह न करते हुए अपने ‘लक्ष्य’ की ओर दौड़ लगा दी।
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दौड़ता हुआ अजय ‘दीपू डेरी’ के मालिक के घर पहुंच चुका था…. उसने देखा कि वह एक विशाल कोठी के सामने खड़ा था। उसने देखा कि कोठी के सामने एक गार्ड खड़ा था। वह गार्ड के पास पहुंचा और मालिक से मिलने की इच्छा प्रकट की। गार्ड ने उसे ऊपर से लेकर नीचे तक देखा….. उसने पाया कि उसके सामने खड़ा व्यक्ति गंदे और फटेहाल कपड़ों में आंखों में उम्मीद लिए याचक की भांति खड़ा है….. गार्ड मुस्कराया और उसे लोन में बैठा आया। अजय हैरान था…. वह उस गार्ड से पूछना चाहता था कि वह उसे देखकर क्यों मुस्कराया था। लेकिन इस समय उसे डेरी मालिक से मिलना था… जहाँ उसकी आस बंधी थी।
अजय सिन्हा ने जैसे ही डेरी मालिक को देखा तो वह कुरसी से इतनी तेजी से खड़ा हुआ मानो कुरसी पर बिच्छु ने उसे डंक मार दिया हो। ‘दीपू डेरी’ का मालिक वही राजसिंह था जो उसके दर से कभी ठुकराया गया था। अजय सिन्हा को देखकर राजसिंह की आँखों के सामने उसके मासूम लडके दीपू का चेहरा घूम गया। राजसिंह गुस्से में दहक उठा।
“क्या करने आए हो यहां…?”
हाथ जोड़ बैठा अजय सिन्हा…. “मुझे दो लाख रुपये की जरुरत है राजसिंह…..” दांत पीसने लगा राजसिंह…. “यहां तुम्हारी कोई मुराद पूरी नहीं होगी अजय….”
“मेरी पत्नी मर जाएगी…. राजसिंह……. पैरों में गिर गया अजय राजसिंह के…..” वो…… वो तुम्हारी भी तो भाभी लगती है… रा… ज… सिं… ह…..” राजसिंह के पैरों के पास घुटने टेककर बैठा अजय सिन्हा रोने लगा। बहुत गिड़गिड़ाया अजय….. लेकिन राजसिंह टस से मस नहीं हुआ……. उसने अजय को एक रुपया देने से भी मना कर दिया…।
हताशा से और रोते हुए अजय को वापस लौटते हुए देखकर राजसिंह के हृदय से मानो बरसों से दबा बोझ उतर गया था….. उसने आसमान की और देखा और आंखों से दो बूंद ढलकाकर श्रद्धांजलि देते हुए मानो कहा कि लो दीपू…. आज तुम्हारा बदला उतर गया।
गेट से बाहर जैसे ही अजय निकला तो उसे जानी-पहचानी सी आवाज सुनाई दी…… “साहब जी…”
पलटा अजय…. “पहचाना साहब जी….. मैं वही नौकर हूँ… जब इसी तरह आज जिन मैले कुचैले फटेहाल कपड़ों में आप याचक बनकर आए हो… उसी तरह इस मकान का मालिक आपके दरवाजे पर आया था….कमाल है भगवान का इंसाफ भी साहब… मैं उस दिन भी दरवाजे पर था और आज भी दरवाजे पर ही हूँ…. लेकिन उस दिन इस मकान का मालिक बिल्कुल तुम्हारी तरह टूटी हुई उम्मीद लेकर उस मकान से निकला था….. आज उसी तरह उन टूटी उम्मीदों के साथ तुम निकले हो……. माफ करना साहब जी….. उस दिन भी मेरी आंखों से आंसू निकले थे कि मैं इस बेचारे की कोई मदद नहीं कर सकता और आज भी…….. रो पड़ा गार्ड पर कह ही उठा…… “देखा साहब जी भगवान का थप्पड़……” बिना कुछ कहे अजय सिन्हा अस्पताल की ओर टूटे कदमों से चल पड़ा।
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अजय सिन्हा सड़क पर चला जा रहा था और उन दिनों को याद करता जा रहा था…. जब राजसिंह ने उसके सामने नाक तक रगडी थी और उसने झूठी शान में उसे केवल पचास हजार रुपये देने से भी मना कर दिया था। उस दिन राजसिंह की हालत देखकर उसका हृदय नहीं पसीजा था। आज उसके साथ भी वैसा ही हुआ था। उस गार्ड ने सच ही कहा था। यह भगवान का इंसाफ ही था, जिसकी दी हुई सजा उसे अब मिल चुकी थी। वह लड़खड़ाता हुआ अस्पताल पहुंचा तो उसके लडके ने उसे खुश खबरी दी कि मम्मी का आप्रेशन सफल हो गया है। अब वह ठीक हैं। अजय को हैरानी हो रही थी कि ऐसा कैसे हुआ। अचानक उसने देखा कि राजसिंह उसके सामने खड़ा था। उसे सब समझ आ गया और उसकी आंखें निर्झर बन गई। वह राजसिंह के पैरों पर गिर पड़ा। राजसिंह ने उसे उठाया और आंखों में आंसू लिए बोला…. “मैं तुम्हारी तरह पत्थरदिल नहीं हूं पगले……. लेकिन मैं तुम्हें यह अहसास कराना चाहता था कि किसी अपने को खोने का अहसास ही कितना दुख देता है…. जो तुमने उस दिन नहीं समझा था।” “मुझे माफ कर दे मेरे भाई…” ऐसा कहकर अजय सिन्हा फिर से राजसिंह के पैरों में गिरने को उद्धत हुआ…. लेकिन राजसिंह ने उसे पकड़कर अपने गले लगा लिया।
#समाप्त
सोनू हंस