असली अभागा कौन ???
मैं हूँ संजय माँ का दुलारा,पिता का सहारा और बहनों का प्यारा । मैं आज आपको जिंदगी की कड़वी सच्चाई,अपनी कहानी,अपनों की वेदना और अपनों की पीड़ा को जिंदगी न होते हुए भी किसी अंजान अपने की कलम से बयान कर रहा हूँ । आप पढ़कर अपने द्रवित ह्रदय की धड़कनों से पूछकर मेरे सवाल का जवाब जरूर बताना कि असल अभागा कौन है । लिखने वाला खुद असमंजस में है क्योंकि वह विक्रम नहीं है जो बेताल के अबुझ सवालों का सही जवाब दे लिखने वाला भी अपनी कलम के माध्यम से अपने पाठकों से मेरे इस सवाल का सही जवाब मांग रहा है कि आखिर असली अभागा कौन ???
जिंदगी की उथल-पुथल से अनभिज्ञ बचपन के ख्वाबों को संजोता हुआ बड़ी बहनों के बीच छोटा व प्यारा भाई संजय/मैं माता-पिता के आशिर्वाद की छाया में पला,बढ़ा व शिक्षा ग्रहण की । जिम्मेदारियाँ क्या होती हैं ये कभी बड़ों ने अहसास ही नहीं होने दिया मुझको । शिक्षा के बाद छोटी बहन की विदाई के साथ ही मेरी जीवनसंगीनी का गृह प्रवेश हुआ। इस तरह घर में वियोग और मिलन का जो समावेश हुआ वो खुशियों के पलों वाला साबित हुआ। मुझे नौकरी मिल गई थी इसलिए मैने जिंदगी की कमियों को सहेजने का निर्णय लिया और शहर चला आया । मेरे माता-पिता मेरे फैंसले के साथ खड़े थे शायद वो अपने इकलौते बेटे की खुशी में अपनी खुशी समझते थे। मैने अपना नया घर,नया समाज,नई जिंदगी और नया संसार तलाश लिया और मैं अपनी जिंदगी के पल खुशी से गुजारने लगा। मैने जो किया सही किया या गलत मैं नहीं जानता और शायद न ही कोई मेरी जगह होता वह जानता होगा । क्योंकि हर कोई सफल होकर आगे बढना चाहता है, मैने भी बस वही किया। माता- पिता के आशिर्वाद से,बहनो की दुआओं से व जीवन-साथी के संग,मैं जिंदगी के सफर में आगे बढ़ने लगा । बच्चे हुए अकेलापन भर गया और जीवन जैसे महकने लगा। बच्चे बड़े होने लगे तो जिम्मेवारियों का अहसास भी होने लगा । मगर ये मेरे लिए कोई अलग बात नहीं थी,दुनिया को देखा-देखी सब सीख रहा था और मै नई उमीदों भरी जिंदगी को आगे बढ़ाए जा रहा था ।
बेटों का बचपन बीत रहा था और अभी स्कूली शिक्षा ही ग्रहण कर रहे थे कि अचानक से कुछ ऐसा हुआ जिसकी कल्पना मैं तो क्या शायद संसार को रचने वाला भी कभी नहीं कर सकता । मैं बीमार हो गया तो मुझे हॉस्पिटल दाखिल होना पड़ा । उस वक्त कोरोना का दौर था मैं अकेला सा भी महसूस कर रहा था,समाज से अलग-थलग होना सब खल रहा था मुझे। बहन ने मेरे बीमार होने से पहले बिटिया की शादी का शुभ-महुर्त निकलवा रखा था । बहन मेरे ठीक होने की दुआ कर मेरे घर आने का इंतजार कर रही थी। मगर नियती का खेल था, वह घड़ी नहीं आई और बिटिया की शादी का शुभ मुहुर्त आ गया। आखिर आज बहन को भात भरने का निमंत्रण देने आना ही पड़ा क्योंकि कल को तो बिटिया की शादी ही है ना। बहन आई मुझे हॉस्पिटल में मिली,मेरी अवस्था ऐसी थी कि छोड़कर जाया भी न जाए और जिम्मेदारी ऐसी की रहा भी न जाए। बहन को समझा बुझाकर सबने भेज दिया कि जा तुझको बिटिया के विवाह को सम्भालना होगा और हम कल तक ठीक होकर भात भरने आ जाएँगे।
मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था और मैं ठीक तो क्या जिस अवस्था में था उस अवस्था में भी न रहा। हालात इस तरह बिगड़े कि सुबह तक सब मंजर ही बदल गया। रात को बहन के चले जाने के बाद मेरी आखिरी सांसों ने अचानक जबाब दे दिया। अब मैं देख रहा था मेरा बेजान शरीर और उस पर बिलखते मेरे अपने जो उस वक्त वहाँ मौजूद थे। मैं देख रहा था बहन मेरे अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते-करते आंसूओं को पीकर बिटिया की शादी की रस्मों को पूरा कर रह थी और भाई के स्वास्थ्य की पल-पल की खबर लेने की कोशिश कर रही थी । अब जो होना था हो चुका था बस हालात सम्भालने की कोशिशें होने लगी। मुख्य-मुख्य रिश्तेदारियों में ये दुख भरा संदेश फोन के जरिए दिया गया। मगर सब औपचारिकताएँ ही तो रह गई थी। क्योंकि कोई आता उससे पहले ही,आस-पास के लोगों के जागने से पहले ही और सूर्यास्त होते ही मेरे शरीर का दाहसंस्कार हो चुका था । कुछ घंटो के बाद ही तेहरवीं की रस्म पंडित जी अपने विधान और अपने हिसाब से करने लगे। जिसको पता चला जिस हालात में थे आ रहे थे। मगर सभी को मेरे अचानक से चले जाने का,हॉस्पिटल में न मिल पाने का और अंतिम घड़ी में मेरी देह को लकड़ी न दे पाने का और इस दुख की घड़ी में मेरे परिवार के साथ न होने का अफसोस हो रहा था । मैं देख रहा था नियती के इस खेल को । देखते ही देखते ये रस्म पूरी हुई तो विधवा पत्नी को पवित्र स्थान पर ले जाकर नहलवाने व कपड़े बदलवाने के लिए भेजा गया और बेचारे दुख के पहाड़ तले टूट चुके बुढ़े पिता को दुल्हन बिटिया की शादी का जोड़ा लेने खुद बाजार जाना पड़ा। मैं रो रहा था देख रहा था किसके साथ जाऊँ किसको समझाऊँ लाचार था,पत्नी घर पहुँची तो दोनों बेटों को उसी वक्त गाड़ी मे बैठा दिया गया, क्योंकि भात की रस्म भी पूरी करनी थी और बहन की बिटिया को भी विदा करना था और वो भी बिना इस बात का पता चले कि जो नहीं होनी चाहिए थी वो अनहोनी तो हो चुकी है । मैं किसको समझाता मैं तो खुद ही नहीं समझ पा रहा था कि आखिर मैं किस-किस के आसूँ पौंछू और किस तरह पौंछू। जब भगवान ने मुझे किसी के लिए संसार में छोड़ा ही नहीं तो मैं अभागा क्या करूँ । आज मेरी माँ को कौन समझाए जिसका दुलारा बेटा वो ढूंढ़ रही थी,उस पिता को कौन समझाए जिसने कभी मेरी खुशियों के लिए अपने दिल के जख्म नहीं दिखाए थे,उस जीवन जीवनसंगीनी को कौन समझाए कि जिसका उसे पल-पल इंतजार रहता था, वह अब कभी भी लौटकर नहीं आएगा, उन फूल से कोमल बेटों को कौन सम्भालेगा जो अभी बस मेरा सहारा लेकर चलना सीख रहे थे। मेरी बहनें,मेरे अपनें,मेरी जान पहचान वाले सब सूनी आँखों से मेरी तस्वीरों में मुझे तलाश रहे थे।
आज 24 घंटों में जो कुछ हुआ देखकर-सुनकर सब हतप्रभ थे। और मैं कितना अभागा था, सबको बोलने की कोशिश कर रहा था मगर कोई भी मुझे न तो देख पा रहा था और न ही सुन पा रहा था। मेरे दिल में हलचल थी और दुविधावश बस यही सोच रहा था। अपने आप से एक सवाल का जवाब मांग रहा था कि क्या मैं ही अभागा हूँ जो अधूरी जिम्मेदारियाँ भी पूरी न कर सका या मेरे माता-पिता अभागे हैं जिनके बुढ़ापे का सहारा छिन गया या मेरी पत्नी अभागी है जिसको जीवन की नाँव अकेले ही आगे बढ़ाने के लिए दोनों हाथों में पतवार सम्भालने होंगे या मेरे नाजुक से बेटे ही अभागे हैं जिन्हे जिंदगी के उतार-चढाव उस उम्र मे देखने होंगे जो उम्र उनके खेलने-कुदने और पढ़-लिखकर सपने साकार करने की है या मेरी बहन अभागी है जिसकी आँखों में मेरे लिए दुआएं,आसूँ और कभी न खत्म होने वाला इंतजार था या मेरी भांजी जिसको अपनी हर सालगिरह पर अपने मामा की संसार से विदाई का दु:ख लीलता रहेगा या मेरे वो अपने जो जिंदगी भर अपनी जिंदगी में सारी उम्र कभी भी मेरी कमी को पूरा नहीं कर पाएंगे। जो कोई दिख रहा है बस वही भावशून्य खड़े हैं या एक-दूसरे को तसल्ली दे रहे हैं और समझाने की कोशिश कर रहे हैं । सब केवल और केवल मेरी तस्वीरों में मुझे तलाश रहे हैं और सभी उन्हे एक टक निहारे जा रहे हैं जैसे कि मैं कहीं नहीं गया बस उनके पास ही हूँ ।
परंतु अब सबको समझना होगा कि यही नियती है और यही नियती का खेल जिसे कोई नहीं समझ पाया। बस नियती ने एक सवाल सबके दिलों में छोड़ दिया है और सवाल यही है जो मुझे भी जानना है कि आखिर असली अभागा कौन ???