अश्रुनाद मुक्तक संग्रह , वेदना
…… अश्रुनाद मुक्तक संग्रह ……
…. सप्तम सर्ग ….
….. वेदना …..
अनबूझ नियति ने खेली
जीवन की दुखद पहेली
हे ! विकल वेदने मेरी
बन जाओ सुखद सहेली
स्मृतियाँ मधुरिम जब आतीं
मानस में धूम मचातीं
सुख – दुःख रञ्जित घटनाएं
अभिनव इतिहास रचातीं
जब प्रखर वेदना , स्वर में
झड़्कृत होती अन्तर में
स्पन्दित मुखरित मन्थन से
जीवन्त हुए अक्षर में
दुर्भाग्य , भाग्य ने खेली
अनबूझित जगत – पहेली
इस छलनामयी नियति की
तुम हो चिर – सुखद सहेली
निर्मल निश्छल जीवन में
निर्दय इस विश्व सदन में
मैं विकल अकिञ्चन फिरता
परिहास छिपाकर मन में
जीवन सुख – दुख का परिणय
चिर-सृष्टि बिन्दु शुचि वरणय
जन्मों का प्रिय अनुबन्धन
सम्बन्ध स्वयं का निर्णय
जग में कोयल जब आती
मन कुहुक – कुहुक गुञ्जाती
तब विकल वेदना मेरी
गाती , मन को बहलाती
नीरस था जीवन मेरा
बोझिल संसार हमारा
फिर आर्तनाद कर उठता
प्रिय ! के सुर का इकतारा
सुख-दुख रञ्जित जग-माया
सब कुछ खोकर क्या पाया
दुर्गम पथ नीरवता में
सूखे तरुवर की छाया
अन्तर तम – सघन बसेरा
आकर दुर्दिन ने घेरा
जीवन- पुस्तक में तुम बिन
प्रिय ! पृष्ठ अधूरा मेरा
सुख – दुख रञ्जित यह मेले
जीवन में विकट झमेले
कोलाहल जनित जगत के
जनरव में विकल अकेले
गुञ्जित था भव्य भवन में
आभासित विश्व सदन में
रवि समय नियति भव तट पर
पाषाण धूलि के कण में
अभिलाषा रुनझुन गाती
जीवन – सड़्गीत सुनाती
बस विकल कामना मन की
उलझन बनकर उलझाती
जब सत्य प्रताड़ित होता
अन्तस दृग विकल भिगोता
जय शड़्खनाद जनरव का
तब क्रान्ति रूप में होता
हँसता पीकर मद – हाला
जग में आ रोने वाला
बन अघम अधम दुष्कर्मी
भर जीवन – घट घोटाला
वह जीवन की मधु – रातें
अनुपम मधुरिम प्रिय बातें
कलिकाल ग्रसित अब हिय में
हों घात और प्रतिघातें
अन्तस अभिलाष लुटाता
अभिनव आदर्श बनाता
निज व्यथित अकिञ्चित जीवन
सुख – चैन कहाँ से पाता
नयनों ने स्वप्न सजाये
अभिनव इतिहास रचाये
मधुरिम नव किलकारी में
भावी भारत मुस्काये
रँग – रञ्जित सुरभि सुहानी
अन्तर अभिलाष लुटानी
तन – मन सर्वस्व समर्पण
सुमनों की व्यथा पुरानी
भव – कूप विकट दुखदायी
दुर्भाग्य नियति मुस्कायी
निर्गम जग की आघातें
भी संयम डिगा न पायी
स्वप्निल सौभाग्य सँवारे
सुखमय थे सड़्ग तुम्हारे
जग ने जीवन से छीना
जो सहचर बनें हमारे
धुन में अपनी ही गाऊँ
प्रिय ! मूरति मधुर सजाऊँ
नीरव मन के मन्दिर में
स्मृतियों के दीप जलाऊँ
जब घनीभूत पीड़ायें
मानस कल्पित रेखायें
हो विकल हृदय में रञ्जित
आकृतियाँ प्रिय बन जायें
शीतल मलयज पुरवाई
विश्वाञ्चल में जब छाई
आघात सतत जीवन की
फिर मन्द – मन्द मुस्काई
हिय सुखद आस भर लाऊँ
तब विश्व सदन में आऊँ
अन्तस की क्षुधा मिटाने
जग- यायावर बन जाऊँ
लघु सीप सतत अभिलाषी
वह स्वाति बूँद को प्यासी
मोती के जीवन पथ पर
अब छाई सघन उदासी
रञ्जित मन रुनझुन गाये
अन्तर की आह छिपाये
जीवन की मधुरिम बातें
जग गोल – माल कर जाये
दुर्दिन मरुथल गहराया
तन – तपन पथिक ने पाया
हर्षित पुलकित हिय- तरु का
दे जग को शीतल छाया
आमोदित लघु यौवन में
सुधियाँ किसलित जीवन में
अवशेष वाटिका सुरभित
मधुरिम अतीत मधुवन में
रँग – रञ्जित गुञ्जित रातें
अड़्कित मधु मिश्रित बातें
स्मृतियाँ करतीं हिय सञ्चित
निर्मम निर्दय आघातें
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