अश्रुनाद मुक्तक संग्रह चतुर्थ सर्ग
…… अश्रुनाद मुक्तक संग्रह ……
……..चतुर्थ सर्ग …….
………. नीरद ……….
घनघोर घटा घिर आये
पपिहा – मन पिउ – पिउ गाये
दादुर की करुण पुकारें
फिर स्निग्ध चाँदनी छाये
सावन बदली घिर आती
तब विरह – रागिनी गाती
उर में चपला नयनों में
वर्षा निर्झर हो जाती
अगणित पोथी पढ़ डाली
सर्वोच्च शिखर-विद पा ली
बरसो माँ ! विश्व सदन में
अन्तर सुज्ञान – घट खाली
वसुधा लहलहा हिलोरे
प्रमुदित हिय पुलक बिलोरे
हिम- वृष्टि विनिष्टित जीवन
जल झंझा प्रबल झकोरे
सावनी घटा घिर आये
द्रुतगति दामिनि दहलाये
फिर विरह रागिनी स्वर को
सुन अश्रुनाद गहराये
सावन बदली जब आती
तब विकल रागिनी गाती
तन में चपला चित चञ्चल
नयनों को आ बरसाती
लघु बूँदों को बरसाती
जीवन में बदली आती
रस बूँद एक से किञ्चित
हिय- प्यास तृप्ति पा जाती
स्वाती बूँदों को ऐसे
हो सीप तरसती जैसे
मेरे मरुथल जीवन में
रस बूँद बरसती कैसे ?
घन-श्याम सघन घिर आये
तन – मन उमंग भर जाये
उत्तुंग शिखर तक चपला
नभ छूने को ललचाये
जीवन सतरंगी घेरे
भव – पथ पर सघन अँधेरे
तुम मञ्जु- मूर्ति बन जाओ
चिर – मन – मन्दिर के मेरे
मैं मृदुल – हृदय अभिलाषी
हूँ मलिन नगर का वासी
बोझिल दुर्दिन जीवन पर
छाई किञ्चित न उदासी
जीवन सम्बन्ध बनाये
मद लोभ मोह भटकाये
इतना तो सजग रहें ही
आशीष नमन मिल जाये
क्रमशः अभिनव जग होली
खोली अतीत ने झोली
जीवन की मधुरिम सुधियाँ
रंगित नव रंग – रँगोली
जनरव ने भर – भर प्याली
सञ्चित जल – राशि चुरा ली
अतिशय उपभोग किया अब
जीवन का पनघट खाली
आभासी जगत हमारा
परिवार नवल अभिसारा
मिलते नित विश्व सदन में
प्रिय “मुख पुस्तक” के द्वारा
नीलाम्बर में लहराऊँ
नभ – यायावर कहलाऊँ
निज विपुल रूप धर पल में
मानव – मन को बहलाऊँ
नभ में बदली घिर आये
लघु बूँदों को बरसाये
किञ्चित जीवन-पनघट पर
रस बूँद बरसती जाये
जब श्याम घटा घिर आये
प्रमुदित मन रुनझुन गाये
जीवन रँग-रञ्जित सुधियाँ
रिमझिम फुहार बन छाये
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