अश्रुनाद अष्ठम सर्ग ‘ प्रारब्ध ‘
अश्रुनाद
…. अष्टम सर्ग ….
…….. प्रारब्ध ……..
मरुस्थल जीवन गहराता
जो लिखता वह मिट जाता
अभिनव अभिलेख मचलता
अनचाहा ही लिखवाता
जीवन में सघन अँधेरा
प्रारब्ध यही है मेरा
फिर नियति नटी के छल ने
पग – पग प्रतिपल आ घेरा
उन्मुख था सुखद सवेरा
तब दुख ने आकर घेरा
बरबस मैं विकल अकिञ्चन
प्रारब्ध यही है मेरा
अश्रुनाद
मानस – पट पर लिखवाता
प्रारब्ध स्वयं मिटवाता
अभिलेख हृदय में आकर
अनचाहा सा लिख जाता
जीवन का सुखद सवेरा
जग से कर दूर बसेरा
स्वच्छन्द विचरना जिसमें
कल्पित त्रिलोक है मेरा
तम का अञ्चल लहराया
नक्षत्र जगत से आया
तारक नभ – राशि हृदय में
जीवन – भव – पथ पर छाया
जब शीत सघन मुस्काता
नभ में निहार छा जाता
अपने दिनकर का दिन में
मैं किञ्चित दर्श न पाता
अश्रुनाद
कलरव जनरव सँग खेला
सुख – दुख जीवन में झेला
उड़ चला नील अम्बर में
अब चलना स्वयं अकेला
अन्तस में सघन अँधेरे
यह अन्तहीन पथ घेरे
तुम सहगामी बन जाओ
जीवन – यात्रा के मेरे
मञ्जुल सुभाग्य अभिलेखा
शशि – मुख मन मुदित सुरेखा
अब विकल अकिञ्चन फिरता
करके देखा अनदेखा
दुर्भाग्य – भाग्य अभिलेखा
परिमित अनन्त अनुरेखा
जीवन के अविरल पथ पर
प्रतिफलित कर्म फल देखा
अश्रुनाद
सतरड़्गी जीवन घेरा
अनुबन्धित जीव बसेरा
प्रारब्ध ग्रसित अभिलेखा
अवरुद्ध नियति से मेरा
सुन्दरतम रूप सजाया
सुरभित मकरन्द लुटाया
जीवन अनन्त चिर पथ पर
प्रारब्ध ग्रसित ले आया
बल होता प्रबल प्रणेता
जब अभय क्षमा कर देता
परिहास भीरुता दुर्बल
मद अहंकार भर लेता
अन्तस बदली अनुकाया
दुर्भाग्य बनी चिर – माया
आभासित हिय – अम्बर में
जलनिधि की श्यामल छाया
अश्रुनाद
अभिलाषित सुखद बसेरा
दुर्भाग्य नियति ने घेरा
प्रारब्ध प्राप्य जीवन से
किञ्चित परिवाद न मेरा
दुर्भाग्य दिनों का आना
फणिनाग – शूल को पाना
प्रारब्ध ग्रसित उपवन में
सुमनों सम खिल-खिल जाना
जीवन- पथ सत अभिलेखी
अविवेक कृत्य अनदेखी
चिर- काल हृदय के पट पर
करता मैं देखा – देखी
सुख-दुख उपक्रम मृदु-रेखा
माया – मद कृत अनदेखा
प्रारब्ध फलित जीवन में
जन्मों का सत – अनुलेखा
अश्रुनाद
अनबूझ सघन तम छाये
मन मृदु प्रतिबिम्ब बनाये
सुलझी नव ज्योतित आशा
दुर्भाग्य , नियति उलझाये
दुर्भाग्य ग्रसित तम घिरता
जीवन में उठता गिरता
यायावर बनकर जग में
विक्षिप्त आजकल फिरता
जीवन मरुथलमय मेरा
दुर्दिन ने प्रतिपल घेरा
अभिलाषित पनघट से फिर
भर लेता सुखद सवेरा
दुर्दिन दुर्गम पथ घेरे
पग – पग पर सघन अँधेरे
बन जाओ यात्रा – पथ के
तुम जीवन साथी मेरे
अश्रुनाद
जीवन रँग – रञ्जित मेला
आमोद प्रमोदित खेला
बोझिल कर्मों को लेकर
ओझल हो चला अकेला
आखेट दुखद आलेखा
निर्मम निरीह अभिलेखा
दुर्भाग्य कालिमा ने फिर
खींची मम जीवन रेखा
खगकुल का कलरव करना
वनचर स्वच्छन्द विचरना
प्रारब्ध सतत जीवन में
निर्झर झर – झर झरना
अभिलाषित भुवन सजाये
प्रमुदित रञ्जित सुख छाये
फिर क्रूर नियति के छल से
रड़्गित जीवन ढह जाये
अश्रुनाद
मन प्रेम भक्ति में पागा
मद लोभ मोह सब त्यागा
प्रारब्ध- करों ने निर्मम
उलझाया जीवन – धागा
प्रारब्ध स्वयं लिखवाता
अभिलेख वही मिटवाता
दुर्भाग्य ग्रसित जीवन में
अनचाहा सा लिख जाता
हिय व्यथित विकल कृश काया
प्रारब्ध ग्रसित जग – माया
मेरे मरुस्थल – जीवन में
सूखे तरुवर की छाया
—- —– —–
अश्रुनाद
…… नवम सर्ग ….
…….. अध्यात्म ……..
प्रज्ज्वलित सतत हिय ज्वाला
जग ने विस्मृत कर डाला
मैं ध्यान मग्न जप करता
ले सुस्मृति मञ्जुल माला
जन्मा हूँ ले प्रत्याशा
मन में अनन्त अभिलाषा
मेरे भी शून्य हृदय की
कर दो तुम शान्त पिपासा
भँवरित जन्मों का डेरा
यह प्राण पथिक है तेरा
तुम सहगामी बन जाओ
यह दिशाहीन पथ मेरा
अश्रुनाद
अनुग्रह असीम अभिसारा
अक्षय निधि प्राण हमारा
आराध्य अर्घ्य अर्चन में
अर्पित है जीवन सारा
यह ऋणी सतत जग सारा
रञ्जित गुञ्जित अभिसारा
तेरी करुणा ने सबको
भव – सागर पार उतारा
जग – आघातों को सहती
ही सतत चेतना रहती
चर- अचर जगत में अविरल
पीयूष – धार बन बहती
जब भक्त भक्ति भगवन में
सड़्गम होता शुचि मन में
दृग – नीर बहें तब निर्झर
यह क्षण दुर्लभ जीवन में
अश्रुनाद
जीवन में सुख – दुःख सहती
चेतना हृदय में रहती
चञ्चलता सतत जगत