अलहदा_इश्क़
उगते सूरज के साथ साथ जब,
सुलग उठती है तुम्हारी यादों की लौ;
जाग उठते हैं…अनछुए अनकहे कुछ पल,
जो रहते हैं सदाबहार जीवन भर!
खुद में ही रहते हुए…कुछ पल,
भागते वक़्त को खींच लाती हूँ;
जब लिखने बैठती हूँ रोज़ नियम से
अपनी हर श्वास का हिसाब;
समय मुस्कुराकर ठहर ही जाता है,
मेरी मनमानियों को सर पर बैठाता है;
संवाद करता भी है मुझसे…और,
किस्से बस तुम्हारे ही…सुनाता है;
पढ़ता है कुछ बेनाम बिखरी पडी चिट्ठियां,
मेरे चेहरे के हर हाव-भाव पर बाकि हैं जो;
क्यूँकि प्रेम नहीं किया उस वक़्त मैंने,
हाँ खुद प्रेम बनती चली गयी;
हर कुछ तो ख़ास था वक़्त वो भी
जो फना करता रहा मुझे मुझमें ही;
जो उतर आता था ढलती शाम के साथ,
जब अधखुली पलकों में जाग उठते थे जज़्बात;
पल पल गुज़रते पलों के साथ,
रंग नए उड़ते हुए…खिलखिलाने लगे;
जैसे हर करवट के संग जी उठती थी,
शायद हर पल नया जन्म लेकर;
सदियों से वक़्त ने मुझे और मैंने वक़्त को,
चुन लिया था एक हमराह की मानिंद;
बस एक वक़्त ही तो था जो सुन रहा है,
मुझे कबसे बिन रुके और….!
हमराही बने मैं और वक़्त,
कितने आयाम तय करते आये हैं;
बस एक तुम्हे सुनते हुए…हाँ बस तुम्हे!
फिर इत्तिफ़ाक़ क्यों कह दूँ इसको जब है ये,
मुकम्मल और यकीनन अलहदा इश्क़ हमारा!
©anitasharma