अलग अलग से बोल
अलग अलग से बोल
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ये दुनिया बहुत ही गोल है,
करती रहती भाव – मोल है।
बातों – बात बिगड़ती रहती,
समझ से परे नाप – तोल है।
रहन – सहन के ढंग निराले,
अलग-अलग बोलते बोल है।
पूर्ण कोई जन हो न पाया,
कोई न कोई तो झोल है।
रातों – रात बदलती रहती,
पृथक नगाड़े और ढोल हैं।
काम-काज के पंथ जुदा से,
सभी के भिन्न-भिन्न रोल है।
पल में श्वेत पल में सियाही,
तन-मन पर पहरावे खोल हैं।
मनसीरत भेद जान न पाया,
ये मानव जाति अनमोल हैं।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)