अरविंद सवैया
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अरविंद सवैया
(8 सगण + लघु)
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जब से यह जीवन प्राप्त हुआ तब से बिसरा हमसे प्रभु धाम ।
मन मोह बसा मद लीन हुए तन में फिर आन बसा चुप काम ।।
हम यौवन पा मजबूर हुए अति पाप किये न लिया हरि नाम ।
अब साँझ हुई इस जीवन की अब तो भज ले मन तू सिय राम ।।
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कितने तुम कोष भरो अपने पर संग न जावत एक छदाम ।
गहने तुम जोड़ रहे इतने तन धार न पाय सको कुछ ग्राम ।।
चिनवाय रहे कितनी तुम मंजिल भूल गये तजना यह धाम ।
तय है तन ये इस धूल मिले कर चेत अरे भज ले सिय राम ।।
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राधे…राधे…!
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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