अमर क्रन्तिकारी भगत सिंह
युग-युग से पंजाब वीरता, पौरुष और शौर्य का प्रतीक रहा है। सिखों के समस्त दस गुरु अपनी आन पर मर मिटने, पराधीनता न स्वीकार करने और अत्याचारी मुगलों से टक्कर लेने के कारण आज भी जन-जन के बीच श्रद्धेय हैं। लाला हरदयाल की प्रेरणा से ‘गदर पार्टी’ का निर्माण कर अंग्रेजी साम्राज्य चूलें हिला देने वाले सोहन सिंह भकना, करतार सिंह, बलवन्त सिंह, बाबा केसर सिंह, बाबा सोहन सिंह, बाबा बसाखा सिंह, भाई संतोख सिंह, दिलीप सिंह, मेवा सिंह जैसे अनेक रणबाँकुरे सिखों की जाँबाजी की शौर्य-गाथाएँ पंजाब के ही हिस्से में आती हैं।
‘जलियाँवाला बाग’ में सैकड़ों सिखों की शहादत, लाला लाजपतराय का ‘साइमन-कमीशन-विरोध’ इतिहास के पन्नों में यदि दर्ज है तो दूसरी ओर स्वतन्त्रता की नई भोर लाने के लिए पंजाब के लायलपुर के एक गाँव बंगा के एक सिख खानदान का योगदान अविस्मरणीय है। इसी खानदान के वीर अर्जुन सिंह ने अंग्रेजी शासन की बेडि़याँ तोड़ने और पराधीन भारतमाता को आजाद कराने के लिए म्यान से बाहर तलवारें खींच लीं। सरदार अर्जुन सिंह के तीन बेटे किशन सिंह, अजीत सिंह, स्वर्ण सिंह भी देशप्रेम के दीवाने होकर अंग्रेजी हुकूमत को टक्कर देते रहे।
इसी बहादुर परिवार में एक बच्चे ने जन्म लिया। बच्चे की माँ चूकि पूजा-पाठ करने वाली ‘भगतिन’ थी, अतः बालक का नाम रखा गया- सरदार भगत सिंह।
भगत सिंह के पिता एक दिन खेत में गेंहूँ बो रहे थे। उस समय बच्चे भगत ने खेत में कारतूस बोकर यह सिद्ध कर दिया कि वह भी बाबा और पिता के आदर्शों पर चलकर अंग्रेजों की गुलामी की बेडि़यों से भारत को आजाद कराने में अपने प्राणों की बाजी लगाएगा।
उच्च शिक्षा ग्रहण करते समय भगत सिंह क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न ही नहीं रहे बल्कि देश-भर के क्रान्तिकारियों को संगठित कर एक दल ‘हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना’ का गठन भी किया।
जब ‘साइमन कमीशन’ का विरोध कर रहे लाला लाजपतराय पर साण्डर्स ने बेरहमी के साथ लाठीचार्ज किया तो लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिए साण्डर्स का वध कर भगत सिंह ने यह दिखला दिया कि अभी भारत-भूमि वीरों से खाली नहीं हुई है।
भगत सिंह सच्चे अर्थों में मजदूरों, गरीबों, किसानों, बुनकरों आदि के हितैषी थे। वे एक ऐसे भारत के निर्माण का सपना देखते थे जिसमें न किसी प्रकार का शोषण हो और न कोई आर्थिक असमानता। तिलक, सुभाष, लाला लाजपत राय की तरह ही वे गाँधीजी को वास्तविक आजादी का छद्म योद्धा मानते थे और उनकी अहिंसा को कोरा पाखण्ड बतलाते थे।
अपनी क्रान्तिकारी विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने और बहरी अंग्रेज हुकूमत के कान खोलने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त्त और सुखदेव के साथ एसेम्बली में बम से धमाका कर साइमन साहब, वायसराय, सर जार्ज शुस्टर को ही नहीं इंग्लेंड को भी हिलाकर रख दिया। बिना कोई नुकसान किये किसी साम्राज्य को कैसे हिलाया जा सकता, यह नजारा हॉल में बैठे क्रांग्रेस के दिग्गज नेता पण्डित मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और पण्डित मदन मोहन मालवीय ने भी देखा।
बम से धमाका करने, ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाने और बहरी सरकार के खिलाफ पर्चे फेंकने के बाद भगत सिंह चाहते तो वहाँ से आसानी से बच निकल सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा न कर, गिरफ्तार होना ही उचित समझा।
23 मार्च, 1931 का वह सबसे दुर्र्भाग्यपूर्ण दिन। जेल की कोठरी में एडवोकेट प्राणनाथ मेहता से प्राप्त ‘लेनिन का जीवन-चरित्र’ नामक पुस्तक को भगत सिंह पूरी तन्मयता से पढ़ रहे थे, जबकि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि आज का दिन उनके जीवन का अन्तिम दिन है। मृत्यु के भय से परे भगत सिंह ने कुछ ही समय पूर्व अपने प्रिय रसगुल्ले मँगाकर उनका स्वाद चखा। ऐसा लग रहा था जैसे वे मौत के आतंक से इतनी दूर हों, जितना पृत्वी से आकाश। उस वक्त यदि कोई उनके पास था तो वह था महान क्रन्तिकारी लेनिन का व्यक्तित्व।
भगत सिंह पुस्तक के कुछ ही पन्ने पढ़ पाये थे कि उनकी कालकोठरी में चमचमाती यूनीफार्म पहने जेलर दाखिल हुआ। उसने कहा-‘‘अब आपको फाँसी पर चढ़ाने का हुकुम है, आप तैयार हो जाएं।’’
भगत सिंह के दाहिने हाथ में पुस्तक थी, उन्होंने पुस्तक से अपनी आँखें न उठाते हुए अपने दूसरे हाथ से जेलर की ओर इशारा करते हुए कहा-‘‘ठहरो, एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है, क्या आप लोग इतना भी समय नहीं देंगे कि हम भारतीय विदेशों में बह रही क्रान्ति की हवा में भी साँस न ले सकें।’’
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