अभिलाषा
कंधों पर लटकी गुते तेरी
ऊरोजों को छूती हैं ऐसे
सावन का बादल, पर्वत की
चोटी को छूता हो जैसे.
चंचल से नयन तीखी चितवन
अधरों पर प्यासी मुस्कान लिए
तस्वीर तेरी बनती है प्रिये
प्रेम की देवी पास मेरे.
नाभी क्या, फूल कमल सा
सोंदर्य बढ़ता कर्णफूल भी
कामदेव की रति, कहूँ तुम्हे
या कहूँ तुम्हें मंदाकनी
पग में पायल झंकार सहित
चल श्रृंगार बढ़ाता है
बदन लचीला कोमल सा
पवन संग उड़ता जाता है.
प्यार सही, नहीं वासना
न तृष्णा का बोध मुझे
सदा रहो सपनो में मेरे
इतना है अनुरोध तुझे
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सर्वाधिकार सुरक्षित/ त्रिभवन कौल