अभिनय
संस्मरण
विस्मित सा उस नौजवान को गौर से देखने पर भी यादास्त में नही आ रहा , वह पैरो मे झुकने के बाद बोला “सर , मै विक्रम हूँ , आप यही हैं सर । ” मैं बेबूझ सा मुस्कान के साथ कहता हूँ ” हाँ तो बिल्कुल ठीक भी हूँ और यही हूँ । ” वह इधर उधर देखते हुए बोला सर चलू , काम पर जाना है। ” वह चला जाता हैं ।तभी मेरे साथ मुंडेर पर बैठे मेरे साथी ने मुझे आगाह किया -अब चले १५ मिनट से ज्यादा हो गये रोज अपन १० मिनट तक का ही रेस्ट लेते है, मैं अपने ख्यालों से बाहर आता हूँ , और बेमन से उठ खड़ा होता हूँ और अपने भ्रमण के समापन के लिए घर की और बढने लगता हूँ , मेरे साथी रेल्वे से रिटायर ड्राइवर हैं , पता नही किस आकर्षण मे हम अब एक-दूसरे के घनिष्ठतम है, हर दिन एक बार मिलना न हो तो भीतर रिक्तता भर जाती है, मैंने यह अनुभव किया है यह प्रेम का पौधा सहज ही अंकुरित होकर पल्लवित होता रहता है बस राग मिल जाता है और यह घट जाता है, और सही मायने में जीवंतता व जिंदगी की खूबसूरती इसी मे प्रफुल्लित होती है, पीछे से मेरे साथ ही रिटायर हुए बाबू जी तेजी से आकर साथ हो लेते है और बताते हैं ” सर , अभी विक्रम मिला था , आपका पूछ रहा था, मैंने बताया अभी निकले है हनुमान मंदिर के आगे की मुंडेर पर बैठते हैं , क्या वह मिला सर आपको । ” मैंने अनमने ही कहा, “हाँ पर पहचाना नही, कौन विक्रम ” वही सर जो अपने स्कूल का गायक लडका था , वाह कितनी बढिया लता मंगेशकर की आवाज में गीत सुनाया करता था ” मेरे स्मृति पटल पर अतीत के क्षण तेरने लगे , याद आया कि किस भाँति उनके माता-पिता ने आकर स्कूल मे झगड़ा किया था , और हिदायत दी थी ” अब कभी हमारे लडके से कोई नाटक वाटक मे मत करवाना , हम नाच नचैया वाले नही है, हमारे खानदान में कभी किसी ने गाना वाना नही गाया , यह ओछे लोगो का काम हैं ।” विगत बिंब से मैं स्वयं को भूला सा चल रहा था, कि एक मित्र ने मुझे खींच कर साइट मे किया , किसी जीप वाले और पैसेंजर के बीच तकरार चल रही है, ” पूरे पैतीस ही लूँगा, तुम किस जमाने की बात करते हो, यहाँ हर दिन डीजल के भाव बढते है ” सावधानी से चलना जरूरी है ट्राफिक भी तो खूब बढ गया है मैं मन ही मन सोचता हुआ आगे बढ़ने लगता हूँ तभी बाबू जी बोले ” आजकल डीजल सैड में 8000 रूपये फीक्स पर धंधा करता हैं बता रहा था , साहब यदि घर वालो ने मेरी गाने की चाहत में अडंगा न डाला होता तो आज प्रसिद्ध गायक होता ” बाबू जी की बात लगता है चारों और से गूंज कर मेरे कान के पर्दे पर टकरा रही है, मुझे अनायास याद आता है बचपन मे देखे एक सर्कस की , जो हमारे गांव से दूर तहसील मुख्यालय पर आया था, रात को पैदल चलकर हम सभी दोस्त देखने गये थे, और उस दृश्य पर ध्यान अटक रहा था जहाँ पर शुरूआत मे ही एक छोटा सा लडका बंदर की वैश भुषा मे आता है, बड़ा प्यारा सा, खेल दिखा रहा है, अपने मुँह से उसने कई प्रकार की संगीत की धुने उत्पन्न की , कई सुन्दर सरस गीतो की कडियाँ गुनगुनाई , हम सभी बड़े आनंदित होकर तालियाँ बजाने लगे, बहुत मनहर और गजब की कला थी उसके पास, सभी लोग बहुत प्रभावित थे कि एक बड़ी लड़की बंदरियाँ की वेशभूषा में आती है, और उसे खींचती हुई बाहर ले जाती है, छोटा बच्चा जो बंदर बना हैं कहता है ” सुनो, यह मेरी माँ है और कहती है कि नाटक में काम नही करूँ अपितु मै एक पटवारी हो जाऊँ ”
मित्र टटोलने के अंदाज मे कहते है, आप मेरे घर चल रहे है न , आपका घर पीछे छूट गया ……।।।
छगन लाल गर्ग “विज्ञ”!