अब मन सपना देखेगा
आकांक्षा से मिली प्रेरणा,
ललक लगी पा लेने की,
आस अनल में दहक रहा मन,
तन का खपना देखेगा।।
अभिलाषाएँ जाग उठी हैं
फुर्सत वाला शौक गया।
असंतृप्ति का झोंका मन की
मन्द अगिन को धौंक गया।
ज्यों कर्तव्यनिष्ठ मतवाला
श्वान कान में भौंक गया।
धूमिल से स्वप्नों में डूबा
मन हलचल से चौंक गया।
जो निद्रा में देखे जाते
सपने नहीं कहे जाते,
अभी अभी जब नींद उड़ी है
अब मन सपना देखेगा।।
आस लिये वंशोद्धार की
कञ्चन मृग मारीच हुए।
प्राण दिये या लिये जगत -हित
कर्म नहीं ये नीच हुए।
लाखों प्रेमी हमसे पहले,
कई हमारे बीच हुए।
अगणित हुए प्राण उत्सर्गी
अनगिन वीर दधीच हुए।
धर्म राष्ट्र है, कर्म राष्ट्र है,
जिसका व्रत संकल्प राष्ट्र है,
सच्चा वीरव्रती बलिदानी
दर्द न अपना देखेगा।।
बीज घृणा के बोकर कोई
प्रेम छाँव पाना चाहे।
कटु शब्दों को संयोजित कर
गीत मधुर गाना चाहे।
चाह निरर्थक है उस उर की
राह गलत जाना चाहे।
हृदय-मात्र को, हृदय बात बस
इतनी समझाना चाहे।
प्रेम के केवल ढाई अक्षर
जिसे समझ आ जाएंगे,
तड़प उठेगा हृदय, हृदय का
अगर तड़पना देखेगा।।
संजय नारायण