अबोध अंतस….
अबोध अंतस
बह रहा
सपनों में
तेरे संग
ढूंढ रहा तुझे
आत्मसात करने
शब्दों से परे
इशारों की दुनिया
मौन स्वर में
स्वाभिमान की सरिता में
आत्मनिष्ठ शब्दों को व्यक्त करते
भावनाओं के संगम की ओर
जहाँ संवेदना आलिंगन करें बोल से
बोल बाहें पसार इंतजार करें
अनुभूति का!…
उस एक मंदिर में
जहाँ जल रहा है
शब्दों का परिमल दीपक
वहीं आस-पास कुलांचे भरते
विचरते रहते
शांत सप्त स्वरी कृष्णसार
प्रिय दीपक वह जलता रहे
प्रतीति को रोशनी
का सहारा मिलता रहे
ताकी मैं अंतर्धान हो सकूं तुझमें
मेरी चेतना
मेरा अहम्-वहम
मेरी वेदना
और मेरा संकल्प सभी
विलय हो जाए मेरे साथ
और मैं अंखड हो जाऊं
रहे तो केवल
उज्ज्वल दृष्टिकोण
आशा और उम्मीद का स्वच्छ निर्झर
ओ! अतिभव्य
मेरा तुममें विलय
तुम्हें रास आएगा?…
संतोष सोनी “तोषी”
जोधपुर (राज.)