अफ़सोस इतना गहरा नहीं
अफ़सोस इतना गहरा नहीं
कि सब कुछ मिटा देने को मन करे
ना ही दुख इतना गहरा
कि ख़ुद को ख़त्म कर लूँ
बस निष्प्रभ हूँ,
डगमगाता , लड़खड़ाता सा
कितने फ़ैसले जो मैंने लेना चाहे
उन्हें लेने और ना लेने का
खामियाजा भुगतता हुआ
कभी सोचता हूँ अपने अकेलेपन में
अगर ऐसा होता तो क्या होता
अगर ये कर लिया होता तो क्या होता
क्या ये होता.. या फिर…..
इन्हीं सवालों में अक्सर उलझ जाता हूँ
हिमांशु Kulshrestha