*अपवित्रता का दाग (मुक्तक)*
अपवित्रता का दाग (मुक्तक)
विचारों में उत्तम मधुर राग घोलो।
महकता गमकता सुधर शब्द बोलो
मिली जिंदगी पावनी वृत्ति खातिर।
नहीं दाग बन कर कभी राह खोलो।
सदा चिंतना का पवित्रीकरण हो।
जले मन अपावन नवीनीकरण हो।
न नाला बनो गंदगी का ख़ज़ाना।
धुले भाव विकृत विशुद्धीकरण हो।
चलो दाग लेकर कभी मत सुधर जा।
कुचलने अनायास मत तुम उधर जा।
वदन मन दिखे एक सुन्दर सलोना।
बनाने परिष्कृत स्वयं को उतर जा।
पुरुष बन लुभाने चलो साफ बन कर।
मनुज बन मनोहर चलो रे न तन कर।
करो मत अनर्गल सदा सत्य पथ चल।
नही दाग ढोना दिखो दिव्य चल कर।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
फितरत
फितरत अच्छा अरु बुरा,जैसी हो रणनीति।
उपकारी फितरत भला,सदा जगाये प्रीति।।
मानववादी वृत्ति है,प्रिय फितरत का रंग।
जिसका शुभग स्वभाव है,उसका पावन अंग।।
दर्शनीय फितरत सदा,करता है कल्याण।
कुत्सित चालाकी दुखद,हर लेती है प्राण।।
जिसके उत्तम भाव हैं,उसका फितरत सभ्य।
जिसके गंदे भाव हैं,उसका हृदय असभ्य।।
फितरत सुधा अमोल जो,रखे सभी का ध्यान।
पावन मानस तंत्र का,होता नित गुणगान।।
फितरत मोहक शैल की,उन्नत शिखा विशाल।
जिसके सुन्दर कर्म हैं,उस पर सभी निहाल।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
नहीं दूर जाना (मुक्तक )
भले बोलना मत, नहीं दूर जाना।
सदा पास रहना भले भूल जाना।
भले देखना मत,नहीं पास दिखना।
मगर नित निकट में रहे आशियाना।
अगर चल गये दूर काफिर समझ कर।
अगर भागते क्रूर कातिल समझ कर।
ठहर जा चलो देख भीतर बसा है।
कपटहीन मुक्तक सदा शांत सुन्दर।
हुयी हों गलतियाँ क्षमा दान देना।
नहीं कर सकोगे क्षमा, प्राण लेना।
चलेगा मुसाफिर फकीरी अदा में।
नहीं सी करेगा इसे जान लेना।
तिरंगा बना यह चमकता रहेगा।
भले ही न कोई इसे मान देगा।
इसे जान ले जो वही ज्ञान मन है।
रहेगा सदा संग उत्तम कहेगा।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तेरे आने से
आने से तेरे।
खुशी समुच्चय मिलती रहती।
मनोदशा अति मोहक लगती।
दिल में अति उत्साह निखरता।
सब कुछ हरे भरे।
आने से तेरे।
जोशीला मृदु भाव गमकता।
पर्यावरण सुगंधित लगता।
दरवाजे पर चहल पहल है।
मंथर पवन चले रे।
आने से तेरे।
चिडियों का कलरव मनरंजन।
कोयल का प्रिय मोहक क्रंदन।
टपके उर में प्रेम दिव्य रस।
मधुरिम स्नेह जगे रे।
आने से तेरे।
आज दीखता स्वर्ण शिवालय।
सारा घर आँगन देवालय।
सावन सोमवार मुस्काये।
शिव आशीष लगे रे।
आने से तेरे।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मस्ती का सावन
मस्ती का सावन,प्रिय मनभावन,हर्षित जगती सारी।
शिव शंकर आते,डमरू लाते,नृत्य करें सुखकारी।।
प्रिय भोला बनकर,छाल पहनकर,लगते अति मस्ताना।
मुद्रा अति पावन,भाव सुहावन,सकल जगत दीवाना।।
प्रिय नाथ त्रिलोकी,शांत अशोकी,परम तपस्वी योगी।
अति अद्भुत काया,अतुलित दाया, मानस स्वस्थ निरोगी।।
सावन अति मोहक,शिव उद्घोषक,यह मधुमय है रचना।
यह माह मनोरम, शीतल शुभ नम,निर्विकार संरचना।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
बुद्धि
बुद्धि निराली,अति मतवाली, चाल अनोखी प्यारी।
जिमि दीवाली,रात उजाली,अति मनहर सुखकारी।।
बुद्धि विनायक,प्रिय सुखदायक,गणपति ज्ञान निधाना।
शुभ विज्ञानी,शिव सुत मानी,रचते तर्क विधाना।
बुद्धि प्रबल है,नित संबल है,यह सबकी छाया है।
इसके आगे,बड़ बड़ भागें,हट जाती माया है।।
जो भी जाना,लोहा माना,नतमस्तक होता है।
समय जानता,बुद्धिमान ही,मौका नहिं खोता है।।
उन्नत मस्तक,लिखता पुस्तक,वेद व्यास कहलाये।
बुद्धि सराहा,किया वकालत,गौतम बुध बन जाये।।
पावन ज्ञानी,परहित ध्यानी,जग में सम्मानित है।
मूरख का मन,ज्ञान रहित हो,होता अपमानित है। ।
बौद्धिक कौशल,करता मंगल,सफ़ल मंत्र सिखलाये।
सुरभित चिंतन,दिव्य प्रदर्शन,का शुभ पाठ पढ़ाये।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
घर सूना हो गया
घर होता है सून तब,जब भीतर के पांव।
टूट फुट कर विखरते,मिलती कहीं न छांव।।
जिसके अंतस में नहीं,उन्नतशील विचार।
वह भीतर से खोखला,दुखी देह संसार।।
उसका सूना घर सदा,जिसमें विघटन देख।
आँगन में अंधियार है,चारोंतरफ कुरेख।।
गिरा मनोबल देख कर,रो देता है गेह।
भीतर की ही शक्ति से,खुश होता मन देह।।
अंतर्मन मजबूत कर,नाचे सहज उमंग।
शीर्षासन पर बैठ कर,गेह जमाये रंग।।
शिलान्यास कमजोर यदि,खण्डित होता गेह।
स्थापित इसको नित करें,शुभ्र कामना स्नेह।।
मजबूती से हृदय को, रखना सतत विशाल।
तुच्छ मनुज का घर सदा, सूना अरु कंगाल।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
डोली
पीहर से ससुराल चली,बिटिया अति रोवत जागत है।
रोवत मात पिता भगिनी,परिवार दुखी मुँह बावत है।
होत नहीं चुप रोवत धोवत,लगता अति कष्ट बतावत है।
छूट रहा घर द्वार सभी,गमना मरना सम लागत है।
भोजन छोड़त रात दिना,कल से नहिं सोवत खात नहीं।
पागल सी दिखती चलती,मनहूस बनी कुछ बात नहीं।
देखत है पशु पक्षिन को,विलखाय उदास रहे बिटिया।
बाग बगीच मनोहरता,लख आंसु बहावत है बिटिया।
बंधु सखी सुघरी नगरी,सब त्यागत मोह सतावत है।
याद दिलावत है गइया,अपना मुखड़ा निचकावत है।
नीमडली अनबोल बनी,पतिया लटके नहिं भावत है।
नाहक वीन बजे छतिया,दुखिया बिटियान रुलावत है।
हे बिटिया ससुराल चला,यह डोलि सजी इसमें चलना।
पीहर मोह तजा बिटिया,ससुराल सुहाग सदा गहना।
होय विदा अब चेत सदा,कर सार्थक जीवन को अपने।
सास पती ससुरा भसुरा,सब होंय सुधा अपने सपने।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सजल
बहुत प्यार करने को दिल कह रहा है।
सदा चाहता मन कबुल कर रहा है।
इसे चाहिए कुछ नही सिर्फ प्यारा।
सुघर शांत पाना सुमन कर रहा है।
दिलेरी इसे है सुहाती हमेशा।
हृदय से मिलन हेतु दिल कर रहा है।
तुम्हारे भरोसे खड़ी जिंदगी है।
इसे तुम संभालो यजन कर रहा है।
मिले हो मुसाफिर बने प्रीति निर्मल।
न तोड़ो हृदय को नमन कर रहा है।
सदा साथ रहना भुलाना कभी मत।
सखे!दिल लुभे बस यही चल रहा है।
बनावट रहे मत बहे स्नेह धारा।
सहज व्योम छूयें मदन कह रहा है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वार
स्मृति के झरोखे से
स्मृति है निराली ग़ज़ल लिख रहा हूँ।
प्रेमी दीवाना सजल लिख रहा हूँ।।
नफरत से टूटा हुआ यह i मनुज है।
नमन करके तेरा भजल लिख रहा हूँ।।
हाथी की मस्ती बहुत है सुहानी।
तुझे आजमाता हजल लिख रहा हूँ।।
आंखों में मेरे तुम्हीं प्रिय गड़े हो।
बड़े नेह से इक नजल लिख रहा हूँ।।
बजाता हूँ बाजा मधुर रागिनी में।
बहुत हो मुलायम बजल लिख रहा हूँ।।
नयनों की काजल में खुशबू है तेरी।
तेरी देख नजरे कजल लिख रहा हूँ।।
मजा तेरा यौवन मजी है जवानी।
सुंदर वदन पर मजल लिख रहा हूँ।।
सुहाना लुभाना बनावट सुघर सी।
मुखड़े पर तेरे महल लिख रहा हूँ।।
साहित्यकार डॉ० रामबली मिश्र वाराणसी।
गम की रात
ग़म की रात भयानक भारी।
पीड़ित होय जिंदगी सारी।।
लगती रात भयानक जैसी।
दुखी हृदय की ऐसी तैसी।।
मन हताश अरु घोर निराशा।
नहीं चमक की कोई आशा।।
जीवन में दिखती अंधियारी।
लगता भाग्य देत है गारी।।
जीवन लगता बहुत विषैला।
लगता मादक स्वाद कसैला।।
नहीं खुशी का भला हाल है।
भयाक्रांत अति दुखी चाल है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रीति काव्य (सजल)
प्रीति काव्य लिख रही अनादि से मनोरमा।
दे रहीं सप्रेम भाव आदि से मनोरमा।।
वैर भाव त्याग कर सनेह रागिनी बनी।
ध्वनि मधुर उकेरती अनादि से मनोरमा।।
दुश्मनी दुखांतिका मिटे घटे समाप्त हो।
धार दे सुशांति शब्द की सदा मनोरमा ।।
मानवीय आचरण लिखे सदैव वंदना।
नेह लोक जागरण करे सदा मनोरमा।।
माधुरी मनोहरी परम्परा रचा करे
ज्ञान प्यार का सदा सिखा रही मनोरमा।।
लोच वाक्य रूप रंग में सदा निखारती।
गेय काव्य श्लोक लोक पुस्तिका मनोरमा।।
प्रेम डोर में पिरो समग्र विश्व ढालती।
साधती सँवारती अनूपमा मनोरमा।
कोमला प्रिया मनोरथी महान मंत्रणा।
सिद्ध मंत्र बीज तंत्र साध्य सखि मनोरमा ।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
कवि का कर्म पथ
स्वागत करता कवि कविता का।
पंथ बनाता प्रिय सरिता का।।
वह भावों का गंगा सागर।
लिखता अतिशय मोहक आखर।।
दिशा बताता दिशा बनाता।
दिशाहीन को राह दिखाता।।
दसो दिशाओं का सर्वेक्षक।
वह प्रकाशपुंज अन्वेषक।।
भाव बना वह सहज विचरता।
सकल विश्व लोक में चरता।।
भाव ज्ञान प्रेम अमृत है।
कवि सौरभ प्रज्ञा सतकृत है।।
सुकवि अमिट अनमोल ख़ज़ाना।
शब्द ज्ञानविद शास्त्र सुजाना।।
छन्द प्रणेता निर्माता है।
सर्व लोक में विख्याता है।।
कवि समाज का शल्य कर्म है।
सब रस ज्ञानी लोक मर्म है।।
है समाज का वही सुधारक।
काव्य धर्म का प्रिय उद्धारक।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
नजर का टीका
बुरी नजर से,बचना है तो,टीका बहुत जरूरी।
यही प्रथा है,लोक रीति है,टीका है मजबूरी। ।
छोटे बच्चों,को नजरों से,सदा बचा कर चलना।
मस्तक पर हो,काला टीका,बाहर तभी निकलना।।
लाल रंग का,बीच भाल पर,टीका बहुत सुहाता।
दर्शक देखे,नजर जमाये,देख देख सुख पाता।।
काला तिल अति,छोटा टीका,बहुत बड़ा कातिल है।
नजर खींच कर,पास बुलाने,में माहिर काबिल है।।
हरे रंग का,मोहक टीका,में गोरी खिल जाये
नजर गड़े जब,उस गोले पर,मन तरंग लहराये।।
भांति भांति के,रंग विरंगे,टीके रूप दिखाते।
कुछ नजरों से,बच कर रहते,कुछ नजरों में आते।।
आकर्षक है,मन मोहक है,टीका प्रिय मस्ताना।
दीवानी हैं, नज़रें इस पर,मेलमिलाप लुभाना।
नजर प्रेमिका,टीका प्रेमी,मिलजुल कर रहते हैं।
एक दूसरे, से वे जुड़ कर,बातचीत करते हैं।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सूखी सरिता
बिन देखे यह मन पागल है,चाहत में बस तुम्हीं सजल हो।
सिर्फ प्रेम का यह दीवाना,तुम्हीं मधुर प्रिय हृदय सरल हो।।
सूख गयी है प्यासी दरिया,बन कर नीर इसे भर देना।
हैं उदास ये अचल किनारे,खोज ख़बर इनकी ले लेना।।
प्यासी सरिता की आंखों में,सिर्फ एक तुम ही चाहत हो।
शीतल जल बन कर जब आओ,तुम्हीं अमुल अनुपम राहत हो।।
अति मनमोहक लहर तुम्हारी,बादल बनकर बरसो हरदम।
जल दे कर मुस्कान रीति से,बहना साथी प्रिय बन उत्तम।।
कब तक यह निर्जन काया ले,नीरवता में राग भरेगी।
जंगल जंगल भटक रही यह,जीवन में कब आग बुझेगी।।
इसे सता कर क्या पाओगे,करुणा क्रंदन यह करती है।
हर्ष सुमन जल से नहला दो,यह दुखिया वंदन करती है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रेम परागण (सवैया)
प्रेम परागण हो दिल में अरु
भाव जगे रसना अति मोदक।
राग बहे अति मोहक सा मन में अनुराग बसे प्रिय पोषक।
आखर में मधु शब्द बहे पुनि बुद्धि बने तम का अवरोधक।
नेक करे अभिमान बिना मन हो अति पावन सभ्य सुलोचक।
रात घटे दिन शीतल शांत सुखांतक भव्य लगे मनभावन।
प्रीति उगे वट वृक्ष बने तरु पत्र खिले हरितामृत पावन।
जागृत हो शिव गंध सुगंधित मानव मूर्ति लगे जिमि सावन।
भावन शिष्ट स्वभावन होय सुबोध अक्रोध सुशांत लुभावन।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सूखे आँसू (रोला )
दुख का गिरा पहाड़,सारे आँसू बह गये।
वज्रपात को देख,शेष नहीं कुछ रह गये।।
पथरायी सी आँख,हुआ मनुज अनबोलता।
मूक हुई आवाज,किंकर्तव्यविमूढ़ता।।
जीवन बहुत उदास,नहीं कुछ अच्छा लगता।
है विवेक की हानि,सदा मन उचटा रहता।।
विधि विधान की बात,नहीं किसी को है पता।
कब होगा आघात,करता कौन सहायता??
दिल में पीड़ा कष्ट,पंक्ति लंबी दिखती है।
सतत यातना दौर,दुखी करती रहती है।।
तन मन धन बर्बाद,जीव व्याकुल हो रोता।
आँसू जाते सूख,नींद को भी वह खोता।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रेमामृतम
अति प्रेम महाशय,श्री कृष्णाशय,अविनाशी अवतार।
मधु स्नेह सुधाकर,मधुर रसाकर,चंदन गंध शुमार।।
नित शीतल तरुवर,अतिशय प्रियवर,परम रम्य दिलदार।
प्रिय सत शिव सुंदर,हृदय धुरंधर,कोमल चित्त विचार।।
सब के अनुरागी,दिव्य सुभागी,चिंतन महा विशाल।
अति प्रिय हितकारी,प्रीति विहारी,स्निग्ध सुघर महिपाल।।
यह तत्व निराला,प्रियतम प्याला,अति आकर्षक प्यार।
शुभ सत्व प्रधाना,भाव लुभाना,मोहक शिष्टाचार।।
शिव सभ्य सुनहरा,मादक गहरा,करता सबको पार।
व्यापक संतोषी,उर का पोषी,सचमुच ब्रह्माकार।।
ज़न ज़न का नायक,सहज सहायक,प्रेम सुधा रसनार।
है प्रेम विचारक,पंथ प्रचारक,कृष्ण राधिका द्वार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
चौखट
शादी और विवाह में,चौखट का है स्थान।
वर पित कभी न लांघते,बिना लिये कुछ दान।।
चौखट सीमा रेख है,भीतर आँगन गेह।
बाहर द्वार समाज है,सहज परस्पर नेह।।
अन्दर बाहर मध्य में, है चौखट का राज।
इस पर झुकते लोग हैं,यह है घर का ताज।।
मंदिर का चौखट सदा,दिव्य भाव से पूर।
इस पर माथा टेक कर,रहता भक्त अदूर।।
चौखट मुख है गेह का,सुन्दर शिला समान।
घर की शोभा यह मुखर,टिका इसी पर ध्यान।
हिरणाकश्यप पर हुआ,इसी जगह पर वार।
यह नृसिंह रणभूमि है,असुर वृत्ति संहार।।
चौखट एक समाज का,है वृत्तांत अकाट्य।
यह मनहर अनुपम मरम,सदा विष्णु प्राकाट्य।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
पति परमेश्वर
(अमृत ध्वनि छन्द )
पत्नी धर्म समान है,पति परमेश्वर जान।
इसी सनातन मूल्य को,आजीवन पहचान।।
पति परमेश्वर,शुभग निरंतर,अति सम्मानित।
शास्त्र बताता,ज्ञान सिखाता,करता स्थापित।।
पत्नी लक्ष्मी रूप है,पति नारायण भव्य।
भारतीय दंपति सकल,सदा नवल नित नव्य।।
पति नारायण,विष्णु रूपमय,परम उच्चतर।
निर्मल पानी,सा अति उज्ज्वल,सहज मनोहर।।
पति को सर्व समझ करे,जो पत्नी सत्कार।
वही मोक्ष की भागिनी,होय जगत से पार।।
पति सर्वेश्वर,प्रिय मधुरेश्वर,अनुपम पावन।
पत्नी पूजित,नित प्रेम सृजित,जिमि शिव सावन।।
पति को रखकर हृदय में,जो करती सम्मान।
ऐसी नारी में लगे,शिव मंदिर का ध्यान।।
पति को धारण,प्रिय उच्चारण,पत्नी करती।
उमा शिवा बन,शिव आलय में,वह नित रहती।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मां की कृपा ( सरसी छन्द मुक्तक)
मां की कृपा नहीं यदि होगी,कौन बनेगा ढाल।
वही सिर्फ है इस जीवन में,अपने शिशु का पाल।
न्योछावर वह कर देती है,नित अपना संसार।
उसकी केवल मूल्य सम्पदा,अपना प्यारा लाल।
देख देख आत्मज़ का मुखड़ा,होती सहज निहाल।
राम श्याम को देख लाल में,मन ही मन खुशहाल।
शिशु में ही वह लीन सर्वदा,शिशु में उसका प्राण।
मातु दृष्टि शिशु सूर्य निरखती, रखती प्रति पल ख्याल।
शक्तिहीन जब बालक होता,मां आती है पास।
दीन हीन वह दशा देख कर,होती अधिक उदास।
ईश्वर की वह करे वंदना,डॉक्टर वैद्य बुलाय।
दवा दुआ से शिशु की सेवा,सदा धनात्मक आस।
कृपा चाहिये सदा मातु की,मां ही कृपा निधान।
क्षीण हीन अति दुखी समझ कर,रखना पूरा ध्यान।
रोता बालक अति उदास है,इसमें भरो उमंग।
जोश भरो उत्साहित कर दे,हे मांश्री भगवान।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मानवता से प्रीति (रोला मुक्तक)
मानवता से प्रीति,विश्व को आज चाहिए।
प्राणी के सम्मान,का परचम लहराइए।
हो मत झूठ प्रचार,मनुज निर्मल बन जाए।
होय सत्य का पाठ, जग को सुखी बनाइए।
होना तानाशाह,बहुत गंदी यह लत है।
करना अत्याचार,राक्षसों की आदत है।
शासक वही महान,भाव जिसका हो प्यारा।
दूषित हृदय विचार,बुलाता दुख आफत है।
देख प्रेम का अंत,निराशा मन में आती।
असुरों की है बाढ़,निगलती ज़न को जाती।
खाली है भंडार,स्नेह गायब दिखता है।
करते सभी कटाक्ष,न अच्छी बात सुहाती।
गुप्त हो गयी प्रीति,सत्व को जीवित करना।
होय सदा सहयोग,करो यह पूरा सपना।
बढ़े सहज अपनत्व,परिष्कृत मन विकसित हो।
बढ़े प्रेम संवेग,लोग बन जाएं अपना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दीवाने (कुंडलिया )
दीवाने की चाह में,घनीभूत अहसास।
हरदम ख्वाहिश सिर्फ यह, प्रेमिल दिल हो पास।।
प्रेमिल दिल हो पास,जिंदगी में उजियारा।
खिले बसंत बहार,दृश्य हो मोहक प्यारा।।
कहें मिश्र कविराय,भाव में मधुर तराने।
दिल में सदा उजास,जोश में हों दीवाने।।
दीवाने चलते सदा,जैसे चले फकीर।
प्रेम मोहिनी के लिए,सदा चलाते तीर।
सदा चलाते तीर,एक ही पथ गहते हैं।
प्रेम मंत्र का जाप,हमेशा वे करते हैं।।
कहें मिश्र कविराय,बने कान्हा मस्ताने।
वृंदावन में धूम,मचाते मधु दीवाने।
दीवाने के बोल में,मधुरस घोल अपार।
अंग अंग में प्रीति का,है उमंग साकार।
है उमंग साकार,वदन मन कोमल उत्सुक।
पाने की ललकार,हृदय गति उर्मिल भावुक।
कहें मिश्र कविराय,चले हैं प्रेम बहाने।
जग के सत्य महान,मोह के प्रिय दीवाने ।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
शीर्षक :पवित्रता (अमृत ध्वनि छन्द)
जिसको जितना ज्ञान है,उस का वैसा भाव।
कौशल जिसके पास है,उसका अमिट प्रभाव।।
उसका अमिट प्रभाव,छोड़ता,सब पर उत्तम।
सदा अपेक्षित,प्रिय सम्मानित,इच्छित अनुपम।।
सभी चाहते,सदा मानते,ज्ञानी उसको।
वह समाज में, आदर पाता,अनुभाव जिसको।।
अमृत कोमल भाव है,मधुरिम मोहक राग।
सबके शुभ कामना,का जिसमें अनुराग।।
का जिसमें अनुराग,प्रेम का,रस बरसाता।
आगे आगे,सच्चाई की,राह दिखाता।।
रचता रहता,लिखता रहाता,उत्तम सतकृत।
वही मनुज है,इस धरती पर,जीवन अमृत।।
आदर पाता है मनुज,जिसका मधु संवाद।
करता नहीं गुरूर है,कभी न वादविवाद।।
कभी न वाद विवाद,राह धर,हितकर चलता।
पावन चिंतन,शुभ परिवर्तन,में मन रमता।।
स्वारथ से वह,दूर खड़ा हो,मिलता सादर।
पाता रहता,वह आजीवन,सबसे आदर।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दुल्हन
दुलहन शब्द अधिक मनमोहक।
दिव्य रूपमय मधु संबोधक।।
अति अनुपम है य़ह अवधारण।
प्रेम भावमय प्रिय अवतारण।।
घूंघट में है बहुत मोहिनी।
पायल की झंकार शोभनी।।
आंखों में जादू की लाली।
नील गगन सी मधुरिम प्याली।।
वेश सुहाना मस्ताना है।
रंग देख जग दीवाना है।।
मुखड़े पर है प्रीति ज्योतिमा।
अधरों पर है भव्य लालिमा।।
चलती लगती स्वर्ण लहरिया।
जब लचकाती सुघर कमरिया।।
दिव्य भव्य नव नव्य नायिका।
स्वर्ग परी जिमि नवल कायिका।।
दुलहन की मुस्कान दामिनी।
मतवाली प्रिय चाल कामिनी।।
आकर्षित है सृष्टि यामिनी।
बहुचर्चित है प्रेम गामिनी।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रीति सम्पदा (कुंडली )
प्रीति संपदा से भरा,हुआ सृष्टि संसार।
किन्तु नहीं जब समझ है,तब य़ह खर पतवार।।
कहें मिश्र कविराय,मनुज के घर में विपदा।
लौकिकता की दौड़, अवांछित प्रीति सम्पदा।।
नास्तिक सदा नकारता,सत्व प्रीति की बात।
उसके हिय में भोग की,हँसती रहती रात।।
कहें मिश्र कविराय,शुद्ध मानव मन आस्तिक।
विकृत मनुज अशुद्ध,प्रीति जाने क्या नास्तिक??
जिसका हृदय विशाल है,वही जानता प्रीति।
दूषित मन चलता सतत,अधोपतन की नीति।।
कहें मिश्र कविराय,भाग्य उत्तम है उसका।
प्रीति रत्न की खान,हृदय पावन है जिसका।।
जिसके उर में प्रीति की,बहती है रस धार।
बना द्वारिकाधीश वह,करता सबसे प्यार।।
कहें मिश्र कविराय,उदित मन में है उसके।
सदा प्रेम का भानु,अंग हैं शीतल जिसके।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
विवेकानंद ( सोरठा )
करो न अत्याचार,शिष्ट आचरण हो सदा।
अनाचार व्यभिचार,करते रहते पतित ज़न।।
जिसमें समता भाव,वही विवेकी पुरुष है।
डाले सुखद प्रभाव,संत उसी को जानिए।।
नीर क्षीर की बुद्धि,होती हरदम न्यायप्रिय।
होती जहां कुबुद्धि,सर्व नाश होता वहाँ।।
यही विवेकानंद,देते हैं उपदेश प्रिय।
जीवन में आनंद,मिलता जब मन निर्मला।।
आतम का आभास,सदा बुद्धि पावन करे।
हो विवेक का वास,मानव सर्वोत्तम बने।।
मिथ्या का इंकार,गढ़ता सुन्दर मनुज को।
हो विवेक साकार,तन मन उर उत्तम बने।।
बनो विवेकानंद,यही जयंती कह रही।
अंतस में आनंद,सदा जगे शुभ कर्म से।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
भाव प्रदुषण
सड़े गले विचार में मनुष्यता दिखे कहाँ?
विचार तुच्छ भाव में पवित्रता रहे कहाँ?
धनी बना अनीति से मनुष्य क्या महान है?
जहां कुकृत्य धर्म हो वहां न ज्ञानवान है।
पढ़ा भले कढ़ा नहीं गढ़ा नहीं बढ़ा नहीं।
अशिष्ट बोल बोलता बड़ा मनुष्य है कहीं?
अधर्म थोपता रहे कठोर चाल ढ़ाल हो।
खुदा कहे जुदा रहे अपावनी कुचाल हो।
पवित्र भूमि को सदा नवाजता अशुद्धता।
दिखे नहीं मनुष्यता सदा विवेकहीनता।
पता नहीं चले उसे स्वभाव के प्रभाव का।
अभाव है विचार का दरिद्र दृश्य भाव का।
नहीं कहीं मिठास है कुदृष्टि शब्द सभ्य है।
कुमार्ग ही सुपंथ है वही पुनीत सत्य है।
न सीखाता मनुष्य है न सीख की प्रवृत्ति है।
दुराग्रही मनोरथी सदैव चित्तवृत्ति है।
प्रदूषणीय भावना विषैल नागिनी लगे।
मरी हुई मनुष्यता उदारता नहीं जगे।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
रहे अमर्त्य मित्रता
रहे अमर्त्य मित्रता विकासशील भाव हो।
घटे न प्रेम भावना प्रशांत चित्त छांव हो।
बनी रहे मनोरमा उदीयमान ध्यान हो।
अमीर मित्रता खिले दिलेर द्रव्यमान हो।
विचारशील सोच में बढ़ोत्तरी सदा रहे।
सुखे दुखे सहायता अपार स्नेह नित बहे।
सराहना सदैव हो कटाक्ष हो कभी नहीं।
दिखे न द्वेष लेश मात्र पीतिमा गिरे नहीं।
सुहावनी बयार में सुगंध सिर्फ मित्रता।
अमिट अमर अशोक आस एक आप मित्रता।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
ईर्ष्या
लिखता पढ़ता जो नहीं,वह करता बकवास।
करता सदा कटाक्ष है,नहीं सत्य का भास।।
नहिं कवित्त का ज्ञान है,नहीं छन्द का भान।
डिग्री ले कर घूमता,बनता है विद्वान।।
मूरख जैसा बोलता,कुंठित सदा विचार।
देख ललित साहित्य को,रोता अपरंपार।।
जड़वत जीता रात दिन,नहिं चेतन से प्यार।
असहज़ बनकर चल रहा,कुत्सित दुष्ट विचार।।
जो कुछ कर सकता नहीं,रख माथे पर हाथ।
निंदा करता काव्य का,दिखता बहुत अनाथ।।
जल भुन जाता नीच वह,देख देख साहित्य।
है असहाय निरीह पर,दे प्रकाश खुद नित्य।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रीति निभाना
नित रच बस जाना,प्रीति निभाना,यह पवित्र सुखकारी।
इसको जो जाने,नित पहचाने,यह आनंदविहारी।
जो प्रीति निभाता,वह यश पाता,बनता श्याम मुरारी।
अति शिष्टाचारी,बन आभारी,शुद्ध क्रिया अति प्यारी।
जो त्यागरती हो,भाव रथी हो,निर्मल भव्य विचारी।
वह प्रीति परायण,दिल नारायण,लक्ष्मी अतिशय न्यारी।
वह आतमवादी,श्रद्धानादी,प्रीति सदा सुकुमारी।
नित खुला हृदय है,स्नेहिल दय है,तपसी अमी पुजारी।
जिसका मन निर्मल,अति शुभ्र धवल,आजीवन प्रीति निभाता।
वह लिपटा रहता,कभी न हटता,सहज प्रेम रस पाता।
है प्रीति वंदनी,सभ्य नंदिनी,इसको सतत निभाना।
मत विचलित होना,दिल मत खोना,देखे प्रीति ज़माना।
हो मन दीवाना,खुश भगवाना,उत्तम स्नेह समर्पण।
विश्वास अटल हो,कभी न छल हो,होय सदा शुभ तर्पण।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र
प्यारा मानव (अमृत ध्वनि छन्द )
प्यारा मानव का हृदय,अति प्रिय शुद्ध विशाल।
सब के प्रति संवेदना,का वह अमिट मिशाल।।
का वह अमिट मिशाल,सहारा,सबका बनता।
नहीं पराया,अपनापन है,यही समझता।।
एक भाव से,सबको देखे,गगन सितारा।
क्रिया मनोहर,गाता सोहर,सबका प्यारा।।
प्यारा मधुर सुबोल से,करे सभी से बात।
क्षति पहुंचाता है नहीं,परहित में दिन रात।।
परहित में दिन रात,बिताता,जीवन अपना।
सोच सुहावन,मोहक पावन,उत्तम कहना।।
शुभ प्रतिपादन,मधु वातायन,सुंदर सारा।
उत्तम संगति,सुन्दरतम मति,जग का प्यारा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तुम वही हो (मुक्तक )
मापनी: 122 122 122 122
तुझे देख कर लग रहा तुम वही हो।
बहुत दिन गये आज भी तुम वहीं हो।
परिस्थिति समय सब बदलते रहे हैं।
खड़े थे जहाँ पूर्व अब भी वहीं हो।
न आँधी न तूफान, सब फालतू हैं।
नहीं शक्ति इनमें सभी पालतू हैं।
मनीषी तपस्वी कभी भी न विचलित।
अटल मन अचल देखता सिर्फ तू है।
नहीं जो दहलता वही व्योम गामी।
स्वयं शक्तिशाली परम वीर नामी।
जिसे मोह का भ्रम नहीं है सताता।
वही धर्म पालक सहज सत्यकामी।
बहादुर कभी भी नहीं हार माने।
बना तत्व वेत्ता सकल सार जाने।
नकारे पराजय विजय ध्वज हृदय में।
सुनहरे सफर के लगाता तराने।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सच्चा मित्र (मुक्तक)
मेरे प्यारे मित्र तुम्हीं हो।
मधुर सुगंधित इत्र तुम्हीं हो।
जन्म जन्म तक साथ निभाना।
मोहक गमक पवित्र तुम्हीं हो।
जग में बहुत लोग रहते हैं।
अपनी बातेँ सब कहते हैं।
सच्चे मित्र वही हैं केवल।
जो दुख के साथी बनते हैं।
जिसके दिल में प्रीति कामना।
निर्मल मधुरिम शुद्ध भावना।
वही मित्र के काबिल होता।
देता केवल नहीं याचना।
बिन मांगे जो देता रहता।
खोल हृदय को आगे रखता।
अंतर्मन में स्नेह भरा है।
वही मित्र प्रिय मन में बसता।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र
मतलबी लोग
बहुत मतलबी लोग यहाँ हैं,मतलब से ही साथ निभाय।
काम निकल जाने पर देते,कूड़े में सब देय बहाय।
बहुत संकुचित दिल है इनका,स्वारथ में करते सब काम।
काम पूर्ति जब हो जाती है,मुँह विचका कर होते बाम।
उपकृत नहीं समझते खुद को,जाते भूल सकल उपकार।
दंभ कपट अरु द्वेष हृदय में,नहीं है मन में शिष्टाचार।
कुत्सित काया दूषित सबकुछ,मायावी मन अपरम्पार।
काम सिद्धि के बाद विमुख हो,ईर्ष्या करते बारंबार।
करते रहते सदा शिकायत,सदा लगाते हैं अभियोग।
भीख मांग कर काम चलाते,करते रहते हरदम ढोंग।
बहुत निकम्मे नीच वृत्ति के,इनसे बच कर रहना दूर।
इनको घास नहीं जो डाले,उन्हें समझना सच्चा नूर।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
चल मस्ती की खोज करें अब
मस्ती में है जिंदगी,हो मस्ती से प्यार।
प्यार भरा जीवन रहे,खुशियाँ मिलें अपार।।
मस्ताना अंदाज हो,नित मस्ती की चाल।
झूम झूम कर नृत्य हो,जीवन सुखी बहाल।।
स्वागत हो मुस्कान से,हो आगत पर ध्यान।
जो आता है द्वार पर,वही अतिथि भगवान।।
प्रिय वाणी बहु मूल्य ही,जीवन का आधार।।
मीठे प्यारे बोल से,हो सब का सत्कार।।
प्रिय शब्दों के संकलन,का हो नित अभ्यास।
इनके सफ़ल प्रयोग से,होय मधुर अहसास।।
आप दिव्य प्रिय मित्र से,भर जाता है गेह।
दूर कहीं जाना नहीं,बना रहे मधु नेह।।
प्रीति योग अद्भुत अलख,अकथनीय हृद तथ्य।
मधुर मनहरण काव्य सम,सरस सनातन भव्य।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हीरा दिल (अमृत ध्वनि छन्द )
हीरा दिल से हर समय,होगी मोहक बात।
नियमित बोली में दिखे,सिर्फ प्रेम की पात।।
सिर्फ प्रेम की पात,शब्द में,अर्थ सुधारस।
उर को छूती,अमृत वाणी,अतुलित मधु रस।।
वचन मुलायम,खुद पर कायम,हरता पीरा।
सदा चाहिए,मधु मन प्यारा,सच्चा हीरा।।
हीरा अनुपम प्यार का,जब होगा सत्कार।
खिल जाएंगी इंद्रियां,मन होगा मनुहार।।
मन होगा मनुहार,हृदय अति,चमक विखेरे।
नेह निराला,मीठी ज्वाला,लेत बसेरे।।
सावन दिखता,हर्षित होता,मधुमय वीरा।
प्रीति मचलती,सहज घुमड़ती,लगती हीरा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
जपत रे मन जा शिव द्वार को।
सहज भाव रहे मन में सदा।
जपत जा शिव की कर वंदना।
नित निवेदन हो अभिवादना।
भज़त रे मन जा शिव द्वार को।
वृषभ वाहन संग सुशोभितम।
सहज शैलसुता शिव मोहिनी।
कमर में मृगछाल त्रिशूल कर।
प्रिय शिखर कैलाश तपस्थली।
परम मोहक शंकर भाव है।
विकट रूप सुहावन सर्वदा।
अभय दान मिले हर भक्त को।
रटत रे मन जा शिव नाम को।
सरप माल विराज़त कंठ में।
प्रिय जटा अति पावन गंग से।
हर स्वभाव दयामय सिन्धु सम।
करत याद बढ़ो शिव ग्राम को।
हरिहरे प्रिय नाम प्रसिद्ध है।
जगत कष्ट निवारक शंभु भव।
सत विराग विराट जगद्गुरू।
कहत शंकर रे मन जा वहाँ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
आजादी का मूल्य
आजादी का मूल्य जानता,जो है आज गुलाम।
आजादी के मिल जाने पर,लेता मन विश्राम।
आजादी को कायम रखना,राष्ट्रजनों का काम।
जो करता बर्बाद राष्ट्र को,उसका पापी नाम।
खून बहाने पर मिलती है,आजादी को जान।
जंजीरों में कसा हुआ जो,उसमें कहाँ है जान।
वीर शहीदों के बलबूते,होत देश आजाद।
स्वाभिमान है जिसके भीतर,वह है जिंदावाद।
आजादी अमृत समान है,हो पीने की चाह।
जो इसको पीने का आदी,उसकी अनुपम राह।
बहुत दिनों के संघर्षों से,होता मन आजाद।
सदा महोत्सव आजादी में,दिखता अमृतवाद।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
अच्छी राहों पर चलो
अच्छी राह पकड चलो,मन में रख विश्वास।
छल प्रपंच से दूर रह,करो सुखद अहसास।।
जीवन अति आसान है,द्वेष भाव को त्याग।
प्रीति रीति की नीति में,आजीवन नित जाग।।
सच्चाई की राह का,जो करता है जाप।
उससे होता है नहीं,सुनो कभी भी पाप।।
अनुशीलन हो सत्य का,गलत बात इंकार।
अडिग रहो सत्कर्म पर,कर्म भला स्वीकार।।
बुरा न सोचो कर भला,बनना सीख महान।
इसी ज्ञान को सीख कर,बन उत्तम इंसान।।
मन के मैले भाव को,बाहर बाहर फेंक।
स्वच्छ बनो निर्मल रहो,बन उपकारी नेक।।
साहित्यकार डॉ- रामबली मिश्र वाराणसी।
तमन्ना
यही तमन्ना रहती दिल में,मानवता का प्यार मिले।
एक दूसरे में घुल जायें,हर कोई का द्वार खिले।
कपटमुक्त हो चलना सीखें,सच्चा सुन्दर भाव बने।
भेद भाव को तोड़ फोड़ कर,समतावादी पर्व मने।
नहीं अजनबी समझ किसी को,सबके प्रति हृद चाहत हो।
ऐसी बात कभी मत बोलो,जिससे मन मर्माहत हो।
बोली ठोली का मुँह कुचलो,प्रेम सहित संवाद करो।
अहित न सोचो कभी किसी का,पाप कर्म से सदा डरो।
जैसा जो करता पाता है,यही एक सच्चाई है।
उत्तम बनकर जीना प्यारे,इसमें सदा भलाई है।
जो चलता है प्रेम पंथ पर,वह कान्हा बन जाता है।
जिसके भीतर शुभ्र तमन्ना,वह मानव कहलाता है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
बिना तुम्हारे
बिना तुम्हारे मन विचलित है।
भाव उदास त्वरित स्वचलित है।।
दिल खोया खोया रहता है।
सद्विचार सोया रहता है।।
जब प्रिय नहीं दिखायी देता।
जीवन के सुख को हर लेता।।
अपने तो मस्ती लेता है।
अपनों को अति दुख देता है।।
मिलों भले मत,खुश तुम रहना।
नहीं कभी भी बातेँ करना।।
स्वस्थ सुमन बन कर तुम जीना।
ले कंचन प्याला मधु पीना।।
सरल भाव को ढल जाने दो।
भावुकता को जल जाने दो।।
वंदे को तुम सदा सताना।
दरिया दिल को सहज बुझाना।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
स्वतन्त्रता
स्वतन्त्रता बहुत बड़ा सुरम्य धन्य भाग है।
स्वतंत्र जीवनी सुखी अनन्य आत्म राग है।
स्वतंत्र शब्द कोष में अमीर भाव अंश है।
जहां नहीं स्वतन्त्रता वहाँ गुलाम वंश है।
विचार की स्वतन्त्रता सदा अमोल रत्न है।
बनी रहे खिले सदा यही अथक प्रयत्न है।
स्वतन्त्र राष्ट्र धर्म का प्रचार हो प्रसार हो।
विवाद खत्म हों सभी अचूक स्नेह धार हो।
प्रभा विखेरती सदैव आत्म की स्वतन्त्रता।
रमा बनी गमक रहीं रमेश की स्वतन्त्रता।
उमा बनी चमक रही गणेश मां स्वतन्त्रता।
स्वतंत्र इत्र भाव सी महक रही स्वतन्त्रता।
प्रभावशील संसदीय आत्म शक्ति है यही।
महान तंत्र सर्व मंत्र देव भक्ति है यही।
न दासता भली कभी अमानवीय यंत्र है।
मिली हुई स्वतन्त्रता अनंत मूल मंत्र है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
भारत वर्ष महान (रोला )
भारत वर्ष अनंत,यहाँ की संस्कृति उत्तम।
पावन निर्मल भाव,बसे जिसमें पुरुषोत्तम।।
भेद भाव से दूर,सर्व में प्रभु को देखे।
रखता नहीं दुराव,विश्व शिक्षक के लेखे।।
सर्व धर्म सम भाव,यही है इसका चिंतन।
कण कण से है प्रेम,इसी का करता कीर्तन।।
संस्कृति परम सहिष्णु,देव की रचना करती।
बहुत बुरा आतंक,स्नेह की वसुधा रचती।।
सबसे ऊँचा स्थान,गुरू भारत में पाता।
गुरुकुल है अनमोल,शिष्य को सभ्य बनाता।।
गुरु वाणी में स्वाद,गरल भी अमृत बनता।
गुरु मुख ब्रह्म स्वरूप,अमी रस सहज उगलता ।।
लेकर गुरु से ज्ञान,शिष्य जब वापस आता।
पाता है सम्मान,गृहस्थी दिव्य सजाता।।
अपना झंडा गाड़,विश्व को राह दिखाता।
सभी करें सत्कर्म,यही प्रिय बात बताता।।
दया दमन अरु दान,करे जो वह है भारत।
करुणा ममता प्रीति,लगाये जो वह भारत।।
बाहर भीतर एक,दंभ का मारक भारत।
राम कृष्ण शिव पर्व,मनाये हरदम भारत।।
संतों को सम्मान,दिलाता प्रति पल भारत।
असुरों का संहार,सदा करता है भारत।।
सात्विक मंथन होय,दिखे सत्युग का मंजर।
रहे हाथ में वेद,फेंक दे मानव खंजर।।
देवों की है भूमि,सकल भारत अविनाशी।
उत्तम पावन यज्ञ,स्वयं है शिव की काशी।।
गंगा की तस्वीर,बना है भारत प्यारा।
गंगा सागर तीर्थ,विश्व में सबसे न्यारा।।
भारत की पहचान,अमुल अनमोल ख़ज़ाना।
रत्न गर्भ में व्याप्त,प्रचुर मोहक मनमाना।।
पशु पक्षी से प्यार,सिखाता रहता भारत।
हृदय देश में राग,बहाता सब दिन भारत।।
दिव्य सनातन मूल्य,यही भारत की थाती।
सत शिव सुंदर मंत्र,जपे भारत दिन राती।।
शास्त्रों का सम्मान ,अध्ययन होता व्यापक।
भारत विश्व विधान,सकल जग का अध्यापक।।
कलायुक्त संगीत,उच्च साहित्य विशारद।
भारत पुण्य पवित्र,जहां स्थापित मां शारद।।
लेता जो संकल्प,पूर्ण करता वह भारत।
मन में स्वर्णिम स्वप्न,संजोये दिल में भारत।।
सब के प्रति सहयोग,दिखाता प्रति क्षण भारत।
सत्य मधुर का गान,हमेशा करता भारत।।
सारा जग परिवार,समझते भारतवासी।
मधुर मिलन की राह, खोजते प्रिय संन्यासी।।
सबमें देखे एक,ब्रह्म की अनुपम प्रतिमा।
भारत विश्व महान,देव सब गाते महिमा।।
सोंधी माटी देख,विश्व सारा लहराये।
इस मिट्टी की शान,देख दुनिया हरसाये।।
रंग अनोखा रूप,स्वजन का भाव जगाता।
कोमल हृदय विशाल,विश्व को खींच बुलाता।।
है शास्त्रीय रुझान,लोक में दिखती न्यारी।
नित आदिम जनजाति,नाचती गाती प्यारी।।
मौलिकता की खान,बनावट नहीं सुहाती।
सादा जीवन भव्य,मिलावट सदा लजाती।।
जिसको भाता त्याग,वही आता है भारत।
देखन को श्री राम,लखन सीता का आरत।।
यहाँ प्रेम साकार,सहज प्रत्यक्ष निराला।
राधे कृष्ण महान,प्रीति के निर्मल प्याला।।
रहते यहाँ पहाड़,धर्म का ध्वज फहराते।
औषधि के भंडार,विश्व को स्वस्थ बनाते।।
नदियाँ देतीं नीर,बहा करती चलती हैं।
दान यज्ञ का भाव,जगाती नित रहती हैं।।
प्रकृति सिखाती प्रीति,दान का ज्ञान कराती।
देव लोक की बात,सहज सबको बतलाती।।
भारत सूर्य महान,प्रकाशित करता सबको।
दे उत्तम संदेश,मिलाता सारे जग को।।
कर गुरु का सत्कार,ज्ञान को सदा बढ़ाओ।
शिक्षा से सम्मान,जगत में निश्चित पाओ।।
श्रम ही जीवन मूल्य,साधना करते जाना।
वही धन्य है शिष्य,ज्ञान को जिसने माना।।
दिल से बनना शिष्य,ग्रंथ की संगति करना।
यही दिव्य गुरु मंत्र,इसे मन में नित रखना।।
शिक्षा ही पुरुषार्थ,कर्म पथ पर चलना है।
मानवता का पाठ,हमेशा ही पढ़ना है।।
भारत की यह रीति,विश्व में गुरु पूजित है।
गुरु को करो प्रणाम,वही दैवी पूँजी है।।
स्वारथ का नित त्याग,भोग का रोधी भारत।
भारत की पहचान,विश्व में केवल भारत।।
दीन दुखी से स्नेह,किया करता है भारत।
सबरी भामिनि रूप,राम प्रिय सुन्दर भारत।।
ऋषि मुनियों का देश,स्वयंभू प्यारा भारत।
यह है वैश्विक दूत,सभ्य दुर्लभ शिव भारत।।
शिव का यह दरबार,जगत से आग्रह करता।
हो सबका कल्याण,सुखी हो सारी जनता।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तेरे निशान
विचार के प्रवाह में निशान एक भव्य है।
मिला सहर्ष प्रेम में विमान एक नव्य है।।
कठोर यंत्रणा मिली सुधर गयी है जिंदगी।
यही निशान बन गयी है आज सभ्य नंदिनी।।
सुधारते सजा रहे निशान दे बुला रहे।
कहानियाँ सुना रहे महानता जगा रहे।।
लगे अगर न चोट तो मनुष्य दानवीय है।
पड़ा निशान है गवाह जीव मानवीय है।
निशान देह भी यही निशान बुद्धि प्राप्त है।
निशान यह मनुष्य है निशान सृष्टि व्याप्त है।।
निशान के बिना कहाँ समग्र लोक मूर्त है?
निशानदेह के बिना अदृश्य सब अमूर्त हैं।।
क्रिया बिना कभी नहीं निशान का वजूद है।
सदा पिला रहा जलद करोड़ बूँद बूँद है।।
निशान ब्रह्म नाद है असीम से अनंत तक।
यही यगण मगण तगण अनादि छन्द अंत तक।।
बनी निशान प्रेरणा जड़त्व को नकारती।
सहाय बन मनुष्य का सुजीवनी सँवारती।।
बना सुशिष्य ज्ञान से गुरुत्व से भरा पड़ा।
सुधाररता समस्त लोक विश्व को खड़ा खड़ा ।।
निशान बिन मनुष्य का नहीं निशान शेष है।
निशान ब्रह्म अक्षरा निशान नागशेष है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
नारी अबला कभी नहीं थी
नारी अबला कभी नहीं थी,नहीं आज भी वह अबला है।
नारी पूर्णिम शक्ति पूर्ण है,आदि सृष्टि स्रोत सबला है।।
जो नारी को नहीं जानता,वह मूरख अति अज्ञानी है।
नारी ही नर नारी रचती,इसे जानता शिव ज्ञानी है।।
नारी कोमल अति भावुक है,अति संवेदनशील पियारी।
सकल सृष्टि की वही रचयिता,मौलिक कारक सबसे न्यारी।।
घुलनशील सम्मोहक रचना,शीतल छाया अति सुखदायी।
सबको वह आकर्षित करती ,अनुपम मोहनीय वरदायी।।
नारी रक्षक संरक्षक है,जिम्मेदार महा ज्ञानी है।
बनी वृहस्पति देखा करती,सारे जग की वह ध्यानी है।।
नारी सच में चार मात्रिका,नर में केवल दो मात्रा है।
नारी बड़ी रहेगी जग में,पावन निर्मल रथयात्रा है।।
धर्म पुण्य की वह नैया है,पार उतरता जग सारा है।
नर जीवन को सरल बनाने,हेतु दिखे वह गुरुद्वारा है।।
नारी जब अपमानित होती,देवलोक यह नित रोता है।
अँधियारा का पक्ष भयानक,चढता आपा निज खोता है।।
मंदिर की प्रतिमा रोती है,साधु संत में करुणा क्रंदन।
विधवा हो जाती मानवता,नरपिशाच का हो अभिनंदन।।
नारी अबला केवल तब तक,जब तक उसमें अभिमान नहीं ।
स्वाभिमान की रक्षा खातिर,कर देती काम तमाम सही।।
नारी की जो पूजा करता,महिमा में विश्वास उसे है।
जो उसको सम्मानित करता,गरिमा का अहसास उसे है।।
नारी जब औकात दिखाती,रणचंडी बन जाती है।
उसको अबला कभी न समझो,वीरांगन सी छा जाती है।।
उच्चारण वह बीज मंत्र खुद,सृष्टि पालिका संहारक है।
आता क्रोध उसे जब भी है,असुर दैत्य की वह मारक है।।
महा शक्ति को मत निर्बल कह,चलना सीखो शीश झुका कर।
माया दाया उन्नत काया,से मिलना नित स्नेह दिखा कर।।
प्यार और सम्मान जता कर,नारी से तुम मिल सकते हो।
झूठ मूठ छल कपट हृदय से,कभी नहीं दिल छू सकते हो।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मातम
मातम आता बिना बताये।
चुपके से आकर छा जाये।।
मल कर हाथ मनुज रह जाता।
शोक सिन्धु में घर भहराता।।
मातम आता याद दिलाने।
खुद को सत्तासीन बताने।।
इसके आगे सब बौने हैं।
सभी लोग औने-पौने हैं।।
दुख का क्रम चलता रहता है।
अंतहीन क्या हो सकता है??
मृत्यु सुनिश्चित सबका जानो।
अंतिम मातम को पहचानो।।
बिना बताये घटना घटती।
क्रूर हृदय से नर्तन करती।।
तन मन धन सब क्षति के मारे।
दुखी दीन के बुझते तारे।।
मातम से क्या घबड़ाना है?
सहनशील बन अजमाना है।।
रोने से अच्छा हँसना है।
स्वाभाविक इसको कहना है।।
डट कर जो मातम से लड़ता।
टूट टूट कर भी वह चलता।।
हिम्मत कभी नहीं मन हारे।
मातम की आरती उतारे।।
मातम जीवन की सच्चाई।
इसका स्वागत सिर्फ दवाई।।
जो होता है उसमें क्या वश?
हर प्राणी है केवल परवश।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
लिप्सा (दोहे)
लिप्सा मरती है नहीं,यह है मन का भाव।
विज्ञापन की चाह ही,इसका अमिट स्वभाव।।
लिप्सारहित मनुष्य ही,होता पुरुष महान।
उसे चाहिए कुछ नहीं,सिर्फ आत्म का ज्ञान।।
दर्पजन्य लिप्सा सदा,कहती नाचो जीव।
जब तक तन में प्राण है,तब तक घृत को पीव।।
लिप्सा लौकिक मानसिक,भौतिकवादी देह।
इसी गेह में है बसा,अहंकार का नेह।।
चिता राख से लिपट कर,जो दिखता अवधूत।
देवदूत लिप्सारहित, उत्तम दिव्य सपूत।।
लिप्सा घातक रोग है,इसका होय निदान।
छोड़ बनावट रूप को,बन निर्मल इंसान।।
जिसे नाम की भूख है,वह माया में लिप्त।
लिप्सायुक्त मनुष्य क्या,हो सकता निर्लिप्त??
स्वयं प्रदर्शन के लिए,जो करता है काम।
वह लिप्सा के जाल बझ,करता काम तमाम।।
मृग तृष्णा लिप्सा प्रबल,यह मकड़ी का जाल।
इसमें जो फँसता वही,बन जाता कंगाल।।
मन मारे लिप्सा मरे,मन विवेक से जीत।
जीत लिया जो मन बना,लिप्सामुक्त अजीत।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मातम
मातम आता बिना बताये।
चुपके से आकर छा जाये।।
मल कर हाथ मनुज रह जाता।
शोक सिन्धु में घर भहराता।।
मातम आता याद दिलाने।
खुद को सत्तासीन बताने।।
इसके आगे सब बौने हैं।
सभी लोग औने-पौने हैं।।
दुख का क्रम चलता रहता है।
अंतहीन क्या हो सकता है??
मृत्यु सुनिश्चित सबका जानो।
अंतिम मातम को पहचानो।।
बिना बताये घटना घटती।
क्रूर हृदय से नर्तन करती।।
तन मन धन सब क्षति के मारे।
दुखी दीन के बुझते तारे।।
मातम से क्या घबड़ाना है?
सहनशील बन अजमाना है।।
रोने से अच्छा हँसना है।
स्वाभाविक इसको कहना है।।
डट कर जो मातम से लड़ता।
टूट टूट कर भी वह चलता।।
हिम्मत कभी नहीं मन हारे।
मातम की आरती उतारे।।
मातम जीवन की सच्चाई।
इसका स्वागत सिर्फ दवाई।।
जो होता है उसमें क्या वश?
हर प्राणी है केवल परवश।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
लिप्सा (दोहे)
लिप्सा मरती है नहीं,यह है मन का भाव।
विज्ञापन की चाह ही,इसका अमिट स्वभाव।।
लिप्सारहित मनुष्य ही,होता पुरुष महान।
उसे चाहिए कुछ नहीं,सिर्फ आत्म का ज्ञान।।
दर्पजन्य लिप्सा सदा,कहती नाचो जीव।
जब तक तन में प्राण है,तब तक घृत को पीव।।
लिप्सा लौकिक मानसिक,भौतिकवादी देह।
इसी गेह में है बसा,अहंकार का नेह।।
चिता राख से लिपट कर,जो दिखता अवधूत।
देवदूत लिप्सारहित, उत्तम दिव्य सपूत।।
लिप्सा घातक रोग है,इसका होय निदान।
छोड़ बनावट रूप को,बन निर्मल इंसान।।
जिसे नाम की भूख है,वह माया में लिप्त।
लिप्सायुक्त मनुष्य क्या,हो सकता निर्लिप्त??
स्वयं प्रदर्शन के लिए,जो करता है काम।
वह लिप्सा के जाल बझ,करता काम तमाम।।
मृग तृष्णा लिप्सा प्रबल,यह मकड़ी का जाल।
इसमें जो फँसता वही,बन जाता कंगाल।।
मन मारे लिप्सा मरे,मन विवेक से जीत।
जीत लिया जो मन बना,लिप्सामुक्त अजीत।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मुक्तक
हाय जान रे,सदा मान रे,मत तड़पाओ।
मेरे प्यारे,हृदय दुलारे,नित हरसाओ।
साथी आ जा,बाजे बाजा,हे प्रिय मनहर।
हे शुभ प्रियवर,चंदन तरुवर,मधु बरसाओ।
प्रेम मगन हो,देख गगन को, हे नित प्यारे।
हे आनंदन,उत्तम वंदन,हर विधि प्यारे।
निर्मल सागर,भीतर बाहर,पावन धारा।
आ मिलने को,शिव कहने को,अक्षय तारे।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सिंदूर
पीला लाल लिये यह चमके।
भाल सुहागिन पर यह दमके।।
शुभ पावन यह रंग निराला।
माँग सुशोभित जिमि मधु प्याला।
जब तक यह मस्तक पर रहता।
सुन्दर मधुरिम मोहक लगता।।
चले सुहागिन गीत सुनाती।
पिया संग अठखेल मनाती।।
शानदार यह बहुत लुभावन।
नारी दिखती प्रिय मनभावन।।
वर ने इसका दान किया है।
दिल से वधू सकार लिया है।।
प्रिय प्रतीक सधवा नारी का।
कवच बना यह प्रिय प्यारी का।
जिसके मस्तक से यह ग़ायब।
अशोभनीया दिखे अजायब।।
मिटता जब सिंदूर माँग से।
कुम्हलाता चेहरा अभाग से।
बिन सिंदूर नारि हतभागी।
सिंदूरी नारी बड़भागी।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
भावुकता
भावुक दिल है,सृष्टि अखिल है,मोह समाया।
साफ स्वच्छ है,निर्मल सच है ,नेह कमाया।।
कपट नहीं है,सबका हित है,सकल समेटे।
सुंदरता को,मानवता को,सहज लपेटे।।
निर्विकार है,प्रेम द्वार है,अति प्रिय किसलय।
आत्म समर्पण, नीरज़ अर्पण,मकरंदालय।।
भाव विभोरी,मधु चित चोरी,प्रिय श्री कृष्णा।
अपनी बाहें,खुद हैं राहें,हत मृग तृष्णा।।
प्रिय भावुकता,सदा सफलता,की अधिकारी।
इसको जानो,नित पहचानो,बन अविकारी।।
जो मन मोही,कभी न कोही,प्रिय बन जाये।
परहित वाणी,शिव मधु प्राणी,वह कहलाये।।
भाव प्रधानी,आयुष मानी,सबको जीते।
दिल बहलाता,सतयुग भ्राता,सबका प्रीते।।
बड़ा धनी है,नित सगुनी है,प्रेम कहानी।
लिखता रहता,गाता दिखता,मधुर जुबानी।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
: सावन आया
सावन झूमे,मस्ती चूमे,पावन मधुर बहार।
तन में सिहरन,अति सुन्दर मन,अनुपम चले बयार।।
प्रिया संग है,जमा रंग है,अंग अंग में प्यार।
रिमझिम बारिश,मधु सुख राशी,दे आनंद फुहार।।
जीवन सावन,का हो आवन,शिव का हो अवतार।
कल्प लता हो,सुदिव्यता हो,दिखे सत्य का द्वार।।
स्वर्ग दिखेगा,मन महकेगा,गिरा करे रसधार।
झूला झूलें,सबकुछ भूलें,हो लालित्य अपार।।
कज़री गायें ,पर्व मनायें,खुश हो हर घरबार।
सबका चितवन,हो वृंदावन,मिले प्रेम उपहार।।
ऐसी मस्ती,की है हस्ती,मौलिक प्रेमिल भाव।
सावन आतम,शुभ परमातम,मोहक मृदुल स्वभाव।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।