अपने
लगा हुआ यह दर्द खुशी का, कैसा मेला है।
कहने को सब ही अपने पर, मनुज अकेला है।
कोई हँसता कोई रोता, दुख-सुख है जीवन-
अपने-अपने कर्मों का सब, साथी खेला है।
कभी हंँसाते कभी रुलाते, क्या क्या करते हैं।
संकट जब आता है सारे, मिलकर लड़ते हैं।
दिल में गुस्सा प्यार-मुहब्बत, जो भी हो चाहे-
अपने ही अपनों के खातिर, जीते मरते हैं।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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