अपने शून्य पटल से
ISBN-978-93-5552-216-0
Rs. 250.00 $15
पुस्तक का नाम – अपने शून्य पटल से (काव्य-संग्रह)
रचनाकार का नाम – बाल कृष्ण लाल श्रीवास्तव
प्रकाशक – निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स – आगरा
मोबा: 9458009531 – 38
प्रथम संस्करण – 2022 पृष्ठ – 115
सम्पादन – रमेश चन्द्र श्रीवास्तव ‘रचश्री’
कुछ पुस्तकें अपना अमिट प्रभाव छोड़ने में सफल होती हैं। यशशेष कवि गोपाल दास नीरज जी की निम्न पक्तियाँ आज याद आ रही हैं —-
“आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य”
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद यही विचार मेरे मन में आया कि कवि स्व. बाल कृष्ण लाल श्रीवास्तव जी ने ऐसी रचनाऍं रची हैं जो आम व्यक्ति सोच ही नहीं सकता। कविताओं के माध्यम से कवि ने सृजनशीलता पर बल दिया है। इनकी कविता भले ही ऊपरी तौर पर सामान्य लगे पर भीतर से रूढ़िवादी मानसिकता को परे कर, जीवन की विडंबना तथा प्रकृति के साथ अंतरंगता की सार्थक अभिव्यक्ति करती है।
उदाहरणस्वरुप कुछ पंक्तियाॅं देखिए –
“रंगमंच पर जीवन के
अभिनव अभिनय करते जाना।
कलियाँ बन खिलकर मुस्काना
भौरा बन मधुर गीत गाना ।”
तथा
“रोक लो यदि तुम ये बहते अश्रुकण
मैं सुनाऊॅं आज अपनी भी व्यथा”
ऐसी पंक्तियाॅं किसका मन उद्वेलित न कर देंगी?
एक विलक्षण कवि , कुछ अनमोल कल्पनाओं को बड़ी सहूलियत से पृष्ठ पर उतारता है, और यथार्थ की भयावहता को भी बड़े स्वाभाविक रूप से रचित कर जाता है। जैसे –
“दिवास्वप्न समझो इसको या सत्य की जलती रेखा।
कल मैंने अपनी ऑंखों से शव को चलते देखा।”
जब इस पुस्तक को पढ़ा तो एक-एक पंक्ति अनुभवों से भीगी, प्रश्नों से उलझी तथा आध्यात्म से प्रभावित दिखी —
“मैंने अनंत ज्योति पुष्कर में
पंक्षी तम उड़ते देखा” (पृष्ठ -52)
हिन्दी की सार्थकता तब सम्पूर्ण प्रतीत होती है जब काव्य रचना स्वकेंद्रित न होकर सर्व-जन-हिताय हो जाए और समाज का हर वर्ग उससे अपने को जुड़ा हुआ पाए। इनकी लेखनी का यह विशेष गुण है जिसके कारण इनकी रचनाऍं हर वर्ग के पाठक के अंत:स्थल को प्रभावित करेंगी।
एक उदाहरण देखिए –
“वहाँ क्यों होती प्रज्ञा मौन”….. नामक कविता में कवि का भाव – सौन्दर्य अद्भुत है –
“खीॅंचता है कोई उस पार
कर रहा संकेतो से वार”
तथा
“प्रभाकर का ज्योतिर्मय रूप
आ रही है छ्न-छन कर धूप”
—
“गगन में तारों की भरमार
कहाँ तक होगा यह विस्तार “ जैसी
पक्तियाँ पढ़कर हर पाठक प्रकृति की अनुपम बूॅंदों से स्वयमेव ही आह्लादित होने लगेगा। इनकी कविता में समाज की विभिन्न समस्याओं का भी भाव सन्निहित है। जीवन में दहेज-लोभियों की स्थिति का वर्णन देखिए- (अभी चढ़ाना बाकी है)
“कितने तन-मन मानव जीवन
अबलाओं के भावी सपने
सुहागिनों के मंगल बंधन
निर्धन जन की सिसकन क्रंदन
इस दहेज की बलिवेदी पर
अभी चढ़ाना बाकी है ।”
या
“मौत भी लगती है बेकार” शीर्षक से लिखी कविता की ये पक्तियाँ देखिए –
“है कोई मृगतृष्णा का जाल
नहीं चलती है कोई चाल “
—
“कभी दौड़ा सिक्कों के साथ
कर लिये काले अपने हाथ“
जैसी रचनाओं का सृजन कर कवि ने स्वयं को जीवन के हर रूप से जोड़कर एक नव- भाव सरंचित किया है । प्रकृति चित्रण में जो शिल्प गठन है वो मनोहर है, अनुपम है ….जैसे
“निखर रही है चाँदनी,
निरख रहा है चाँद भी
सजाये दीप-माल को
खड़ी है द्वार यामिनी।”
इतने सुन्दर ढंग से अपनी भावों को व्यक्त करने के कारण यह पुस्तक अपने युग की अविस्मरणीय पुस्तक हो गई है। यह असंख्य स्मृतियाँ सँजोये है तथा पीढ़ियो तक पढ़ी जाने वाली रचनाओं से सजी है। | इस पुस्तक को वर्षों बाद भी यदि पढ़ा जाएगा तो पाठक भावुक होंगे और अपनी आँख नम पाएंगे। इसका कारण है कि इनकी रचनाओं में भाव-प्रवणता के साथ आध्यात्म दर्शन का भी सम्मिश्रण है।
कुछ पंक्तियाॅं देखिए-
“चेतन से जग चेतन है
तेरा चेतन क्यों निश्चेतन।
तथा
पर से दृष्टि हटे तो ही,
जानोगे तो अन्तरतम है।
इन्होंने मर्यादित ढंग से जीवन के विभिन्न रूपों की कलात्मक अभिव्यक्ति की है, जो अद्वितीय है। जैसे-
एक शीर्षक है—“कितने शूल बिंधे उर में” इसकी कुछ पक्तियाँ हैं —
“रिश्ते नाते बहुत बने पर,
तुम संग नाता जुड़ा नहीं
दौड़ –दौड़ थक हार गया पर
सार कहीं कुछ मिला नहीं “
मुझे इस भाव ने बहुत व्यथित किया कि इतने विलक्षण कवि का संग्रह मृत्योपरांत प्रकाशित हुआ। होनी ही कहेंगें कि आदरणीय रमेश जी से मेरा संक्षिप्त परिचय हुआ तथा उन्होने मुझपर विश्वास किया और पुस्तक पर कुछ लिखने का आग्रह किया। इतने वरिष्ठ साहित्यकार ने इतनी उत्कृष्ट पुस्तक का संपादन जिस भावुक मनःस्थिति में किया होगा , वो सोचकर ही मन व्याकुल हो उठता है । पढ़ते-पढ़ते कई बार कवि की मानसिक स्थिति को सोचकर मन भर आया। जैसे-
“कैसे तुम्हें जगाऊॅं प्रियतम,
तुम्हें जागने का भी भ्रम है।”
मैं आदरणीय रमेश चंद्र श्रीवास्तव जी को शुभकामनाऍं देती हूॅं कि उन्होंने कवि के साथ अपने अटूट रिश्ते को निभाया तथा पुस्तक का सफल संपादन किया जिसके फलस्वरूप आज पुस्तक अपने अनोखे रूप में हम सबके सामने है।
रश्मि लहर
लखनऊ,
उत्तर प्रदेश