” अपने बेगाने हो जाते ” ।।
बेटी के संग ब्याहे सपने ,
सब टूट गये , बिखरे जाते ।
दौलत से जब रिश्ते तुळते ,
आहत दिल को करते जाते ।।
क्वांरी साधें मांग भरे जब ,
आँचल में तारे पलते हैं ।
उम्मीदों की सेज सजे तब ,
ख्याल सदा पंखे झलते हैं ।
पल में सपने टूट चले हैं ,
अपने बेगाने हो जाते ।।
फेरे पड़ते मति है फिरती ,
दुल्हन के गुण हुए कपूरी ।
मन से मन का भेद बढ़े है ,
बढ़ती जाये मांग अधूरी ।
जितना पायें उतना कम है ,
लालच में यों धसते जाते ।।
त्रास पले है , प्रीत बढ़े ना ,
जब दहेज का दानव अड़ता ।
मानवता है शर्मसार सी ,
बेटी जलती , फंदा पड़ता ।
अपनी बेटी भूले जाते ,
बारी आने पर पछताते ।।
दूल्हा शान से बिकता है पर ,
जो भी खरीदे है मजबूरी ।
कर्जा ओढ़े , खुद को बेचे ,
माँगें ना कर पाये पूरी ।
जाने कब हम सुधरेंगें जी ,
करनी करते , भूले जाते ।।
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )