अपनी अपनी फितरत
मकड़ी और आदमी
दोनों बुनते हैं जाल
एक गंदगी में
अपने को सुरक्षित रखते हुए,
दोषों को ढकते हुए
कुचक्र ,कपट, की
करामाती कपास के धागे
पर आदमी मकड़ी से बहुत आगे
बिना मेहनत , बुनता रहता है कितने जाल, बिना किसी की परवाह और ख्याल , रत है बुनने में
दुश्चचक्र , जंजाल ,
छीनता रहता है सैकड़ों निवाले ,
परसे थाल, बेशर्मी लाद,
अभी भी
बुनता जा रहा है , मकड़ी से होड़ लगाए
इधर मकड़ी सोच रही है , मैं तो बुन पाती हूं मुश्किल से एकाध जाल ,
मेरा हश्र जानते के बाद भी ,आदमी तो बुन रहा है ,अपना विनाश
अगिनित जंजाल।।
सतीश पाण्डे