अपना तो ये ही स्वारथ है
अपना तो ये ही स्वारध है
शायद फिर कोई आया है
इस मकान के अंदर रहने ।
पहले से ही यहाँ पड़े है
अनछुये कपड़े और गहने ।
कोई भी हो, अतिथि देव सा
प्यार भरा सत्कार करेंगे ।
अनजाने में हुई भूल को
आशा है वे माफ करेंगे ।
देव-देवि आशीष मिले तो
पथ की बाधाये मिट जातीं ।
भले लक्ष्मी आये नहीं पर
सरस्वती तो निश्चित आतीं ।
साहित्यिक मित्रों की खातिर
खुले रखेंगे द्वार बाहरी ।
जहां जुड़ेगी लिखा पढ़ी की
सदाचार की बात हमारी ।
आने वाले हर वर्ष मे
सभी आगतों का स्वागत है ।
यह मकान मंदिर बन जाये
अपना तो ये ही स्वारथ है ।
लक्ष्मी नारायण गुप्त