अन्नदाता ही हमारी शान है
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इस धरा पर अन्नदाता ही हमारी शान हैं।
जो हमें खाद्यान्न देता हाँ वही भगवान है।
वो उगाते हैं फ़सल दिन रात रहते खेत में।
जो बहाते हैं पसीना इस जहाँ की रेत में।
आस इक मन में लिए हर बार ये वो सोचता।
हो सकेगा व्याह बेटी का यही मन रोपता।
लहलहाती नष्ट फसलें छीन ली मुस्कान है।
इस धरा पर अन्नदाता ही हमारी शान हैं।
देख मंहगाई जमाने की कृषक लाचार है।
मूल्य फसलों के उचित ना सोचकर बीमार है।
झेलता हर दर्द फिर भी खेत उसकी जान है।
कर्ज मे डूबा हुआ फिर भी निराली शान है।
फिर किसानों के यहाँ क्यों टूटते अरमान हैं।
इस धरा पर अन्नदाता ही हमारी शान हैं।
दुर्दशा है आज दिल्ली में किसानों की जहाँ।
भ्रष्ट नेता सेंकते निज रोटियां अपनी वहाँ।
कर रहे वो आज बातें राजनैतिक स्वार्थ की।
तुम पियो विष ना किसानों है क्षरण निज मान की।
तू जहां का पेट भरता परिश्रमी इंसान है।
इस धरा पर अन्नदाता ही हमारी शान हैं।
मौलिक एवं स्वरचित
अभिनव मिश्र अदम्य
शाहजहांपुर, उ.प्र.