अनकहे अल्फाज़
अपनी तन्हाई में मैं तन्हा अच्छी थी
जरुरत नहीं थी मुझे किसी सहारे की
ठोकरे खाकर सोचा
के थोड़ा संभल जाती हूं अब
लेकिन, मुमकिन नहीं
बिन तुम्हारे ये जिंदगी गुजारना
चाहना कोई बड़ी बात नहीं
लेकिन…,
तुम्हारा चाहना खुशनसीबी मेरी
एक वक़्त था जब कमरे में मेरे
किताबों के सिवा कुछ भी नहीं था
आज किताबों के हर पन्ने में
तुमको हूं मैं पिरोती
कभी गजलों में, कभी अल्फाज़ों में
कभी डायरी के पन्नों में
रातें सच्ची, दिन झूठे से लगते है
दिन के उजाले रात बहकाने से लगते है
नागंवारा थी कभी बहारें जो मुझे
आज बिखरी है वहां खुशबूएं गुलों की
तमन्ना है कई आज दिल में मेरे
रूठी मेरी बेरंगी दुनियां का
उजला सवेरा हो तुम
मेरी तक़्दीर का लिखा
एक बेहतरीन हसीं ख्वाब हो तुम
देखू जब भी मैं आईना
तो तुम ही नज़र आते हो
मिलकर तुमसे ऐसा लगा
जैसे! सदियों से मेरे साथ हो
जैसे! मेरा ही अक्स हो तुम
घटती जा रही है सासें
पल-२ गुज़रता जा रहा है ये वक़्त
फिर, भी जीते जा रहे है सब
लम्हों की यादें संजोए हुए
तसव्वुर ये तुम्हारा सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है
बन चुका है अब ये ताबिर मेरी भी।
~ Silent Eyes