अधूरी कहानी
शाम हो चला था. पश्चिम की क्षितिज पर सूर्यास्त की लाली साफ दिखाई देने लगी थी. रेलवे स्टेशन पर बैठा मैं अपनी नई कहानी के लिए विषय-वस्तु संजो रहा था.
मैं कभी ये सोचता, तो कभी वो सोचता. पूरा विश्व घटनाक्रम एक फिल्म की भांति परिलक्षित होने लगा.
अब तक अंधेरा छा चुका था. कहानी के लिए मनमाफिक भूमिका नजर नहीं आने पर मैं जाने ही वाला था. तभी एक आवाज सुनकर रुक गया….”बाबूजी कुछ दे दो, बहुत भूखा हूं.”
मैंने पास खड़े उस लड़के को कुछ रूपए देते हुए पुछा….”क्या नाम है तुम्हारा, कहां रहते हो?” वह बोला….बाबूजी मेरा नाम दीपक है. कोरोना की लहर ने सब कुछ डूबो दिया. मम्मी-पापा नहीं रहे, मैं अकेला बचा हूं. दिन भर मांगता हूं, जो भी कुछ मिलता है उसी से पेट भरता हूं.
मैं सोचने लगा…… प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या. मेरी नई कहानी के लिए इससे अच्छा विषय-वस्तु और क्या हो सकता है.
कुछ और पूछने के लिए मैं लड़के की ओर लपका. तब तक वह लड़का एक छूटती हुई ट्रेन में चढ़ चुका था. ट्रेन के रफ्तार पकड़ते ही वह जैसे रात के अंधेरे में ओझल हो गया.