अद्य हिन्दी को भला एक याम का ही मानकर क्यों?
अद्य हिन्दी को भला एक याम का ही मानकर क्यों?
दे रहे सम्मान है सब, मन व्यथित यह जानने को।
कह रहे अभिमान हिन्दी
राष्ट्र की पहिचान हिन्दी ,
और हिन्दी से मिला है
विश्व में सम्मान हमको।
ज्ञान की मन्दाकिनी है
और गिरिधर की मुरलिया,
योग सेवा साधना का
दे रही यह भान हमको।
कर्म कथनी मध्य अन्तर, तथ्य सरबस जानकर क्यों?
दे रहे सम्मान है सब, मन व्यथित यह जानने को।
अद्य हिन्दी को भला एक याम का ही मानकर क्यों?
दे रहे सम्मान है सब, मन व्यथित यह जानने को।।
सूर, मीरा, जायसी का
कर रहे गुणगान लेकिन ,
मन-वचन से आज भी यह
आँग्ल के संदेशवाहक।
मानकर हिन्दी को माता
कर रहे जयगान मिथ्या,
स्वार्थ वैभव पद-प्रतिष्ठा
के महाशय श्रेष्ठ ग्राहक।
मन दूषित पाखण्ड में रत, लोभ बस गुणगान कर क्यों ?
दे रहे सम्मान है सब मन व्यथित यह जानने को।
अद्य हिन्दी को भला एक याम का ही मानकर क्यों?
दे रहे सम्मान है सब, मन व्यथित यह जानने को।।
एक दिन का मान हमको
चाहिए किसने कहा यह?
दे रहे सम्मान हो यदि ,
वर्ष भर जी हर्ष से दो।
आँग्ल की परतन्त्रता से
हो विलग स्वच्छंद हो जा,
और हिन्दी के उपासक
बन हमें उत्कर्ष से दो।
एक दिन निहितार्थ हिन्दी के भला श्रमदान कर क्यों?
दे रहे सम्मान है सब, मन व्यथित यह जानने को।
अद्य हिन्दी को भला एक याम का ही मानकर क्यों?
दे रहे सम्मान है सब, मन व्यथित यह जानने को।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर) पश्चिमी चम्पारण, बिहार