अतीत
इन सर्द शामों में अंगीठी के पास बैठकर चाय की चुस्कियां लेना.. कान पर लगाए ईयरफोन में , राग खमाज में झूमती ठुमरियाँ सुनना.. कुछ अलग ही अहसास है इस एकाकीपन में । एक तो वैसे ही शुक्लपक्ष की पूर्णमासी और धरती पर बरसती चांद की चाँदनी, इन सब के बीच अंगीठी से पैरों पर आती धीमी आंच, और फिर याद आता है बचपन ….
सूर्यास्त होता था और हम सब भाई बहनों की आँखे दादा जी की राह देखती थी । दादा जी डॉ. थे इसलिए हर शाम उनकी कोट की जेब टॉफियों से भरी रहती थी । और हम तो थे ही लालची, दादा जी के अलावा कोई खट्टी मिट्ठी चीजें लाता भी नहीं था। टॉफियां खाने के बाद हम सभी दादा जी को घेरकर उनसे कहानियां सुनते थे । सबकी अपनी अपनी फरमाइश रहती थी । आस पड़ोस के गाँव वालों के लिए हम डॉ साहब के नाती थे ।
इन दिनों चूल्हे पर मां रोटियाँ पका रही होती थी और मैं किताब पढ़ने के बहाने खूब आग सेंक लेता था । पढ़ाई तो कभी नहीं की, केवल पन्ने पलटाये.. और चूल्हे के पास बैठने के कारण गर्मागर्म रोटियां भी सबसे पहले भोग लगाई । घर मे सबसे छोटे होने का फायदा उठा लेता था मैं । पाठ्यक्रम की किताबें मुझे हमेशा बोरिंग लगती थी । मुझे पसन्द था तो सिर्फ लेखकों के अनुभव या कल्पनायें पढ़ना । तब भी और आज भी.. सोचता था, ऐसे कैसे लिखते हैं ये लोग ? जिसे पढ़कर आंखों के सामने पूरी फिल्म चल रही हो, शायद मेरे दादा जी की तरह इन्हें भी इनके दादा जी ने कहानी सुनाई होगी… खैर
शहरों की बड़ी बड़ी बिल्डिंगे देखता हूँ तो वो मुझे गाँव के चीड़, देवदार के वृक्ष के सामने बौने लगते हैं । गांवों में किरायेदार नहीं होते सिवाय पक्षियों के, बदले में हम वसूलते थे उनसे सुबह की चहचहाट.. और सुबह सुबह वो अपने साथ लाती थी ठंडी हवा जो खिड़की से आकर नींद से जगा देती थी । घर से थोड़ी दूर गदेरे की सरसराहट और वहीं पास में हिंसर किनगोड़ के छोटे बड़े पेड़ , जिन पर लगने वाले हिंसर किनगोड़ की हम पूरे एक साल तक प्रतीक्षा करते थे। इनके स्वाद के आगे महंगे से महंगे फल भी फीके लगते हैं ।
घर के पीछे भीमल के पेड़ पर झूला लगाकर बारी बारी करके झूलना । चीड़ के पिरूल को सीमेंट के खाली कट्टे में भरकर पहाड़ की चोटी से नीचे तक आना, यही हमारे बचपन की स्कॉर्पियो थी । इस गाड़ी के खेल में जितनी बार कपड़े फटे उतनी बार माँ के हाथों और डंडों से हमारी सर्विसिंग भी हुई । अक्सर इतवार का पूरा दिन क्रिकेट खेलकर गुजरता था ।
जेब मे ताश की गड्डी लेकर जंगलों में दोस्तों के साथ गाय चराने जाना , फिर 2-3 बजे तक सीप और रम्मी चलती थी । थे तो हम सभी पुडख्या, लेकिन अपनी बारी में सब पत्ते ऐसे पटकते थे जैसे इस धरातल पर ताश हम ही लेकर आये होंगे ।
अतीत के पन्ने पलटते ही आँखे नम और भारी हो जाती हैं । एक पल के लिए सब नश्वर सा लगता है ।
पीछे मुड़कर देखो तो लगता है तब हमारा अपना साम्राज्य , हम ही प्रजा, और हम ही राजा थे । उस समय हम बड़ा बनने की सोचते थे, लेकिन हम ये नहीं जानते थे जैसे जैसे हम बड़े होते जाएंगे यह प्रजा साम्राज्य सब छूटता जाएगा , यहां तक कि परिवार से मिलने के लिए भी समय निकलना पड़ेगा । कभी कभी मन करता है काश मुझे भी सनत्कुमारों की ही तरह आजीवन बच्चा ही बने रहने का वरदान प्राप्त होता।
5 -10 मिनट में पूरा बचपन एक हवा के झौंके की तरह आया और चला गया । हमारे सम्पूर्ण जीवन का सबसे सुनहरा समय हमारा बाल्यकाल होता है । जिसे याद करते करते हम अपना पूरा जीवन यूँ ही काट सकते है ।
– अमित नैथानी ‘मिट्ठू’