अति वृष्टि
अति वृष्टि में सृष्टि फँसी,जग में हाहाकार।
आई विपदा की घड़ी,पड़ी प्राकृतिक मार।।
पहले प्यासी मृत धरा,थी सूखे की मार।
अब बरसी है क्रोध में,करने लगी प्रहार।।
होती रहती रात दिन,बारिश की बौछार।
अब दिखता चारों तरफ,पानी का भरमार।।
ताल-तलैया भर गया,तेज़ नदी की धार।
डूब गये हैं खेत सब,हुई फसल बेकार।।
राहें-सड़कें बंद हैं,बंद सभी व्यापार।
बंद हुआ स्कूल भी,शिक्षा का आगार।।
सब कुछ पानी में बहा,डूब गया घर-बार।
मुश्किल में ये ज़िन्दगी, फँसी बीच मझधार।।
घर में है पानी भरा,छत पर मुसलाधार।
जाये तो जाये कहाँ, पड़ी समय की मार।।
खत्म हुआ राशन सभी,पीड़ा में परिवार।
तड़प रहे हैं भूख से, मिले नहीं आहार।।
ढाया बारिश ने कहर,चहुँ दिस है चित्कार।
विकल हुये हैं जीव सब,करने लगे गुहार।।
हमेशा प्रकृति से किया,मानव ने खिलवाड़।
जंगल पर्वत काटकर,उसको दिया उजाड़।।
स्वयं प्रकृति चेतावनी, देती है हर बार।
अब तो मानव जाग जा,करो प्रकृति से प्यार।।
आँखें मूँदे देखती,बैठ मौन सरकार।
जनता की सुध ले नहीं,करें नहीं प्रतिकार। ।
लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली