अति विशिष्ट जन उपचार …..2
डॉक्टर पंत जी कुछ दब्बू स्वभाव के थे अतः अक्सर मरीजों से अपना व्यवहार विनम्र रखते थे । जब तक सरकारी नौकरी में रहे तब तक आने वाले मरीज उनसे अपेक्षा रखते थे कि उनकी अधिक से अधिक जांचें सरकारी अस्पताल में मुफ्त में हो जाएं तथा येन केन प्रकारेण उन पर यह दबाव डालते थे कि जितनी भी जांचें इस सरकारी अस्पताल में हो रही हैं उनकी मुफ्त में करा दी जाए और अधिक से अधिक दवाइयां मुफ्त में उन्हें उपलब्ध करा दी जाएं । इसके विपरीत जब वे स्वेच्छा से सेवानिवृत्त होकर कार्य करने लगे तब आने वाले रोगी कम से कम जांच करवाना चाहते थे और उनसे यह अपेक्षा रखते थे कि वे केवल अपने अनुभव के आधार पर ही बिना जांच कराए उनको कम से कम दवाएं लिखकर ठीक कर दें । कुछ लोग जिन्हें रोगी कहना उचित नहीं हो गा , उनके पास सिर्फ जांचे लिखवाने ही आते थे और यह चाहते थे कि उनकी सभी जांचे मुफ्त में अस्पताल में हो जाए और वे इलाज़ इस अस्पताल से बाहर किसी अन्य चिकित्सक को अपनी रिपोर्ट दिखा कर ले लेंगे ।
इन्हीं परिस्थितियों में काम करते हुए एक दिन एक बड़े साहब का अर्दली जो संभवत उनकी नाक का बाल रहा होगा अपनी पत्नी को इलाज के लिए उनके पास लाया । पंत जी ने उसके परीक्षण के बाद उसे कुछ उचित दवाइयां लिख दीं । जब वह पर्चा लिखवा कर चलने लगा तो उसकी पत्नी ने कहा
‘ मैं ऐसे नहीं ठीक होऊंगी , पहले मुझे भर्ती करो ।’
मामला क्योंकि बड़े साहब के प्यारे चहेते अर्दली की पत्नी का था , अतः उसे संतुष्ट करने के लिए पंत जी ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा
‘ इसकी जरूरत नहीं है , भर्ती की आवश्यकता नहीं है ।’
फिर भी उन लोगों के द्वारा ज़ोर जबरदस्ती एवं बहस करने के उपरांत पंत जी ने उन्हें संतुष्ट करने के लिए उसकी पत्नी को अस्पताल में भर्ती कर लिया तथा उपचार के साथ अस्पताल में होने वाली सामान्य जाचें भी लिख दीं ।
अगले दिन राउंड पर जब पन्त जी पहुंचे तो वह मरीज अनमने ढंग से लेटी हुई थी उसने उनसे कहा
‘ मैं ऐसे नहीं ठीक होऊंगी पहले मेरा एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड करवाओ ।’
मामला क्योंकि बड़े साहब के मुँह लगे अर्दली की पत्नी का था , अतः पंत जी ने उसका अल्ट्रासाउंड उस दिन करवा दिया ।
तीसरे दिन जब वे राउंड पर पहुंचे तो वह बोली
‘ मैं ऐसे नहीं ठीक होंगी पहले मुझे ग्लूकोस चढ़ाओ ।’
पंत जी ने उसे बहुत समझाया कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है पर वे लोग ग्लूकोज चढ़ाने की जिद पर अड़े रहे । उनकी ज़िद्द को देखते हुए और चूंकि मामला बड़े साहब के छोटे अर्दली की पत्नी का था उसे एक बोतल लगवा दी । वे लोग अपने अपने रोगी का उपचार अपनी मनमर्जी के मुताबिक डॉक्टर पन्त के ऊपर दबाव बनाकर करवाना चाह रहे थे और पंत जी के समझाने के बाद भी उसे घर ले जाने के लिए तैयार नहीं थे । उसका पति उनके इलाज से संतुष्ट भी नहीं था और पंत जी के पास एक दो बार दिन में आकर अपनी पत्नी के इलाज में हो रही लापरवाही की उम्मीद जताते हुए अपना असंतोष प्रकट कर दिया करता था ।
चौथे दिन जब पंत जी राउंड पर पहुंचे तो उन्होंने पाया कि वह बिस्तर पर बैठ कर और अपने सारे बालों को खोलकर झूम रही थी जिस प्रकार से कि अफगानी नृत्यांगनाएं अपने बालों को खोलकर और ऊपर नीचे चारों दिशाओं में घुमाकर झूमतीं हुई नृत्य करती हैं और उसने पंत जी से कहा
‘ मैं ऐसे नहीं ठीक होऊंगी और फिर अपने पति की ओर हाथ उठाकर उंगली से इशारा करते हुए बोली मुझे मुुझे खून चढ़ाओ , मुझे इसका खून निकाल कर चढ़वाओ जब तक मुझे इसका खून नहीं चढ़ाया जाएगा मैं नहीं ठीक होऊंगी ।’
अब तक वे लोग जो कुछ कहते आ रहे थे पंत जी उसे बड़े साहब के छोटे चहेते अर्दली की इच्छा मानकर उसकी पूर्ति करते जा रहे थे पर यह जो नई स्थिति पैदा हो गई थी उसमें डॉक्टर पंत जी ने अर्दली के चेहरे की ओर इस इलाज के लिए उसकी सहमति प्राप्त करने की दृष्टि से देखा । वह अश्रुपूरित नेत्रों एवं विनीत भाव से कर जोड़े पन्त जी के सामने नतमस्तक खड़ा था और बोला
‘ डॉक्टर साहब प्लीज इसे बचा लीजिए ‘
पन्त जी अपने ऊपर उपचार में रोगी एवं उसके रिश्तेदारों द्वारा उत्पन्न जबरिया दबाव एवं सुझावों की परिणीति होते देख रहे थे । रोगी एवं उसके रिश्तेदारों के दबाव एवम दुर्व्यवहार के फलस्वरूप उनके अंदर का जो चिकित्सक आहत हो कर सोया पड़ा था वह जग चुका था ,उसकी जगह उनका मानव मात्र की सेवा वाला भाव जागृत हो गया था । उन्होंने उस अर्दली के जुड़े हुए हाथों को अलग करते हुए उसे अपने पास बुला लिया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उसे सान्त्वना देते हुए कहा
‘ आप शांत हो जाइए , ये ठीक हो जाएँ गी ‘
उन्होंने उसकी पत्नी की मनोदशा के अनुसार उपचार करना शुरू कर दिया और उन लोगों ने भी उस उपचार के बीच में व्यवधान उत्पन्न करना बंद कर दिया था । कुछ दिनों बाद वह ठीक हो कर चली गई ।
उन लोगों को छुट्टी का पत्र सौंपते समय पंत जी सोच रहे थे कि
गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है
‘ सचिव वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोलें भय आस ।
राज धर्म तन तीन कर होय वेग ही नाश ।।
अर्थात यदि आपका सचिव या आपके गुरु जी अथवा आपका वैद्य ( डॉक्टर ) यदि आपसे भयभीत हो आप को खुश करने के लिए आपकी पसंद की प्रिय भाषा बोल रहा है तो आपको समझ लेना चाहिए कि यदि वह सचिव है तो आप के राज्य का और यदि वह गुरु है तो हमारे धर्म का और यदि वह वैद्य अर्थात डॉक्टर है तो हमारे तन अर्थात स्वास्थ्य का जल्दी ही नाश होने वाला है ।