अजनबी से अपने हैं, अधमरे से सपने हैं
अजनबी से अपने हैं, अधमरे से सपने हैं
बुझ चुका है दिल का दिया
ख़ून पीनेवालों के आंसू फीके होते हैं
कह रही हैं नन्हीं तितलियां ।
ख़्वाब सब जलाए हैं, जल रही चिताएं हैं,
रो रही दुआएं मेरी,
रेशमी ये धोखा है, बस हवा का झोंका है,
लौ बुझा रही है मेरी।
वो लोग मर चुके हैं, या मारे जा चुके हैं,
थी जिनके मुंह में ख़ुद की ही ज़बां,
इंसान मर चुके हैं, लाशें ही चल रही हैं,
शमशानघाट जैसा ये जहां।।
जॉनी अहमद ‘क़ैस’