अजनबी रातेँ
अजनबी रातें
अजनबी जगह है अजनबी ये रातें।
भयंकर निशा में करूं किससे बातें?
खोया सा लगता हृदय वक्ष मानस।
अनाड़ी बना मैं जुटाता न साहस।
कोई मुसाफिर नहीं दिख रहा है।
पत्ता शहर का नहीं हिल रहा है।
भटकता भटकता कहाँ जा रहा मैं?
अजनबी बना खुद हिला जा रहा मैं।
नहीँ रात बातें कभी सुन रही है।
बनकर स्वयं काल खुद चुन रही है।
डरता हुआ दिल सहज काँपता है।
निशा की गली में सतत हांफता है।
सुला दी हैं रातें सभी मर गये हैं।
अजनबी बनी रात से डर गये हैं।
सड़क का मनुज मैं न पाता किनारा।
भयावह समय में न कोई सहारा।
अजनबी रहो मत बनो रात रानी।
बनो हमसफ़र प्यार की रच कहानी।
निष्ठुर न हो अब बसा लो जिगर में।
अमृत बनो रात आओ उदर में।
तुम्हीं दिन की किस्मत बनी साथ रहती।
बनी प्रेमिका तुम सदा प्रेम करती।
दिन का हृदय पास रहता तुम्हारे।
नहीं हो अजनबी सदा सत्य प्यारे।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।