अच्छा है कि प्रकृति और जंतुओं में दिमाग़ नहीं है
अच्छा है कि प्रकृति और जंतुओं में दिमाग़ नहीं है
कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं है कोई सवाल नहीं है
अगर दिमाग़ होता तो वो भी लड़ रहे होते
कभी जाति धर्म, रंग रुप, भेषभूषा,भाषा, रहन सहन,
छोटे बड़े, उच्च निम्न, पढ़े लिखे – अनपढ़, और न जानें
कितने स्वरूप उत्पन्न होते जो लड़ने के लिए पर्याप्त होते।
_ सोनम पुनीत दुबे