अचानक जब कभी मुझको हाँ तेरी याद आती है
अचानक जब कभी मुझको हाँ तेरी याद आती है
मेरे चारों तरफ़ ख़ुश्बू गुलों की फैल जाती है
ज़माने हो गए तुझको नहीं देखा मगर फिर भी
सुबह हर रोज़ ख़्वाबों से तेरी पायल जगाती है
मेरी तक़दीर से मैं जब कभी गुस्से में रहता हूँ
मेरे कानों में नग़्मा-ए-सुकूँ तू गुनगुनाती है
मुझे मालूम है तू अब मेरी हो ही नहीं सकती
यहीं इक बात रह-रह के बहुत ज़्यादा रुलाती है
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’