*अग्रवाल समाज तथा जैन धर्म का संबंध*
अग्रवाल समाज तथा जैन धर्म का संबंध
————————————————
महालक्ष्मीव्रतकथा अर्थात अग्रवैश्यवंशानुकीर्तनम् में इस प्रकार उल्लेख मिलता है :-
सौ वर्षों की दीर्घ आयु ,राजा विभु ने पाई थी
बने नेमिरथ राजा ,संतति फिर आगे आई थी
विमल और सुखदेव धनंजय फिर श्रीनाथ कहाए
इन के बाद दिवाकर थे जो जैनी मत में आए
( लेखक कृत पद्यानुवाद : एक राष्ट्र एक जन पृष्ठ 28 )
इस प्रकार अग्रोहा के शासकों में महाराजा दिवाकर सातवीं पीढ़ी के शासक थे तथा इन्होंने जैन धर्म विधिवत रूप से स्वीकार कर लिया था। महाराजा अग्रसेन के वंशज राजा द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने से निश्चित रूप से प्रजा में जैन धर्म के प्रचार और प्रसार को बहुत बल मिला होगा और स्वाभाविक रूप से बड़ी संख्या में अग्रवाल समाज जैन धर्म की ओर आकृष्ट होकर जैन मतावलंबी बन गया ।
देखा जाए तो जैन धर्म तथा अग्रवाल समाज के विचारों में मूलभूत समानता आरंभ से ही विद्यमान है। महाराजा अग्रसेन ने जब 18 यज्ञ किए और यज्ञों में पशु बलि को प्रचलन में लाने से रोक दिया तथा उनके हृदय में जीवो के प्रति दया भाव उमड़ा, उन्होंने पशुओं पर दया करने के लिए सब को प्रेरित किया और पशु की किसी भी रूप में हत्या करने से इनकार कर दिया ,तब समूचे अग्रोहा में सार्वजनिक रूप से पशु वध पर एक प्रकार से रोक लग गई। समूचा अग्रवाल समाज अहिंसा का उपासक हो गया । जियो और जीने दो सबके जीवन का महामंत्र बन गया । जो आत्मा मनुष्य में निवास करती है ,वही पशु में भी रहती है -यह भाव सबके भीतर पलने लगा। मूलतः जैन धर्म का भी यही सार था । अतः कालांतर में महाराजा अग्रसेन की सातवीं पीढ़ी में आकर महाराजा दिवाकर द्वारा जैन धर्म को अंगीकृत करना कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता ।
अग्रवाल समाज का एक वर्ग जैन धर्म की ओर आकृष्ट होकर विधिवत रूप से जैन धर्मावलंबी अवश्य बन गया लेकिन सब लोग शासक के धर्म में दीक्षित नहीं हुए। शासक का प्रभाव अवश्य रहता है लेकिन अनेक स्थानों पर यह देखा जाता है कि शासक जिस धर्म को मानने वाला होता है, उसकी प्रजा का बहुमत उसके विपरीत भी किसी अन्य धर्म को मानता है । अग्रोहा में भी यही चलता रहा । राजा के साथ साथ प्रजा का एक वर्ग जैन धर्मावलंबी हो गया तथा शेष अग्रवाल समुदाय पहले की तरह सनातन धर्म का अनुयाई बना रहा । लेकिन देखने वाली बात यह है कि दोनों ने ही अपने आप को अग्रवाल माना तथा इसी भावना के साथ वह आगे बढ़ते चले गए । कारण यही था कि अग्रवालों की विचारधारा तथा जैन धर्म की विचारधारा में कोई मौलिक अंतर्विरोध नहीं था।
आज भी वह हजारों वर्ष पुराना अग्रोहा का परिदृश्य सारे भारत में स्थान – स्थान पर देखा जा सकता है । थोड़े बहुत अग्रवाल हर जगह जैन धर्मावलंबी हैं । थोड़े – बहुत का अभिप्राय यह है कि स्थान स्थान पर उनका प्रतिशत बदला हुआ हो सकता है। कहीं 5% तो कहीं 25% । लेकिन जैन धर्म में जो अग्रवाल चले गए , वह जैन धर्मावलंबी तो बने लेकिन अभी भी वह स्वयं को अग्रवाल समाज की एक इकाई के रूप में मानते हैं। ऐसे न जाने कितने परिवार हैं जो अग्रवाल समाज की गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से भाग लेते हैं , महाराजा अग्रसेन की जयंती के आयोजनों में शामिल होते हैं , स्वयं को अग्रवाल कहते हुए गर्व का अनुभव भी करते हैं , जिनके बच्चों की शादियाँ भी अग्रवाल परिवारों में ही प्रमुखता से होती हैं लेकिन साथ ही साथ वह जैन समाज के कार्यक्रमों में भी उतने ही उत्साह से सम्मिलित होते हैं । जैन मंदिरों में जाते हैं, वहाँ पूजा अर्चना करते हैं ,जैन ग्रंथों को पढ़ना उनका नियम है तथा जैन धर्म की विविध गतिविधियों में उनकी भावना बराबर बनी रहती है ।
जो सज्जन जैन धर्म तथा अग्रवाल समाज दोनों में ही समान रूप से सक्रिय रहे , रामपुर(उत्तर प्रदेश) में स्वर्गीय श्री सीताराम जैन का नाम इस दृष्टि से बहुत आदर के साथ लिया जा सकता है ।आप एक ओर जहाँ अग्रवाल सभा , रामपुर के अध्यक्ष रहे, वहीं दूसरी ओर जैन समाज द्वारा प्रतिवर्ष महावीर जयंती पर निकाली जाने वाली रथयात्रा में भी आप रथ पर बैठते थे तथा बहुत उत्साह के साथ अपनी जैन धर्म की जिम्मेदारी को निभाते थे। आपके पौत्र श्री पवन जैन भी आजकल अग्रवाल सभा रामपुर के अध्यक्ष हैं। इसके अलावा श्री पारस दास जैन खंडेलवाल का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा सकता है । आप आज 95 वर्ष की आयु में भी जैन धर्म की गतिविधियों में संपूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ संलग्न है ,वहीं दूसरी ओर आपका प्रतिष्ठान खंडेलवाल बुक डिपो रामपुर की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित पुस्तकों की दुकान है तथा आप खंडेलवाल साहब के नाम से ही सब में जाने जाते हैं। इस तरह संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अग्रवालों का जैन धर्म से बड़ा गहरा और घनिष्ठ संबंध है। इसका मुख्य कारण अहिंसा तथा शाकाहारी जीवन पद्धति को दिया जा सकता है ।
आज भी जब हम कुछ होटलों में तथा रेस्टोरेंट में भोजन करने के लिए जाते हैं तो वहाँ *मीनू में जैन शीर्षक* से खाने पीने की वस्तुओं का उल्लेख मिलता है। यह ऐसी भोजन की वस्तुएँ हैं, जिनमें प्याज और लहसुन का प्रयोग नहीं होता ,अंडे का प्रयोग नहीं होता , माँसाहार की कोई भी वस्तु इस जैन शीर्षक के अंतर्गत नहीं आती। अग्रवाल समाज अधिकांशतः पहली दृष्टि में जैन भोजन को पसंद करता है और किसी न किसी रूप में जैन धर्म के साथ तथा जैन आचार विचार और जीवन पद्धति के साथ अपनी निकटता को स्थापित करता है।
————————————————–
लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451