अगर शमशीर हमने म्यान में रक्खी नहीं होती
ग़ज़ल
अगर शमशीर¹ हमने म्यान में रक्खी नहीं होती
तो हरगिज़ ये तुम्हारी सल्तनत फैली नहीं होती
लुटाकर रौशनी अपनी मुनव्वर² मैं भी तो रहता
अँधेरों ने हवाओं से जो साज़िश की नहीं होती
जुदा रहते नहीं हम साथ रहकर भी किनारों-सा
अना³ की ये नदी गर बीच में बहती नहीं होती
हथौड़े तंज़ के तेरे न मुझ पर चोट यूंँ करते
मेरे अल्फ़ाज़ में ये धार हरगिज़ ही नहीं होती
‘अनीस’ इस घर का आँगन भी तो रहता दोगुना हरदम
अदावत⁴ की खड़ी दीवार हमने की नहीं होती
– अनीस शाह ‘अनीस ‘
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