अक्स
कितने ही रोज़ हो गये तुम्हें करीब से देखे हुए।रोज़ आंखे अलमारी के शीशो को लांघती है पर तुम्हें दूर से ही देखकर वापिस लौट आती है शायद मेरी व्यस्तता के कारण।मैं जानता हूं तुम्हें मेरी परवाह है तभी तुम मुझे उस पार से देखती रहती हो।आज पलभर अलमारी का शीशा ऊपर चढ़ाया तुम्हारी महक पूर्ववत मुझमें फैल गयी और तुम्हारे पन्ने स्वयं उड़ने लगे मानो कोई बालक गोद में आने को आतुर हो..।
मनोज शर्मा