अकेले पन की दास्तां
अक्सर हम जब अकेले होते है , कुछ ज्यादा ही सोचते है।
और सोच का ये दायरा रात में कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है ।
फिर कुछ ज्यादा ही खयाल पनपते है।
अब मुझे ही देख लो ……।
अकेला रहता हूं पिछले 2 सालो से ।अपने शहर से दूर, किसी अनजान शहर में । हर रोज़ 10 से 7:00 दफ़्तर में keyboard पर आंकड़ों से रूबरू होकर लौट आता हूं । अपने ही घर ,sorry पर इसे घर तो नहीं कह सकते यह तो चार दिवारी वाला किराए का कमरा है बस, जहां मैं अकेला रहता हूं । घर तो वह होता है जहां मां की आवाज और पापा की डाट सुनाई देती हो ,और जहां छुटकी की जिद की सिसकियां अक्सर गूंजती रहती है। और मैं यह इस शहर में देर रात तक कॉफी के sip लेते हुए बालकनी में बैठ, आने वाली जिंदगी की प्लानिंग करता रहता हूं, और तब तक बैठे रहता हूं जब तक पड़ोसी शर्मा अंकल दूसरी बार बालकनी में आकर मुझे बैठा देख यह नहीं कह देते,
वरुण बेटा अभी तक सोए नहीं, बस सोने ही वाला हूं अंकल ,और मैं यह कहकर अधूरी planing के साथ सोने चला जाता। फिर कल से वही भाग दौड़ वहीं सपने वही planing और वही बालकनी,और जो बदलता बीतता रहता,
वो सिर्फ वक्त और वक्त की रफ्तार जो कभी थमती ही नहीं..!