अंत भला तो सब भला
“देख बहना, हमारा भाई-बहन का रिश्ता अपनी जगह है, लेकिन मैं कमीशन के पैसे नहीं छोड़ने वाला। तू पहले मेरा कमीशन का दस हज़ार रुपया दे।” बीच गली में अपना स्कूटर खड़ा करने के उपरान्त ही गुरवीर ने बड़ी भद्दी ज़बान में चिल्लाते हुए कहा। आते-जाते लोग कौतुहलवश वहीं खड़े हो गए।
“भाई, घर के अंदर आ जाओ।” लाजवन्ती, जो अपने पति हरभजन सिंह के साथ ही द्वार पर खड़ी थी, शर्मिंदा होते हुए बोली। लोग-बाग, भाई-बहन के बीच होने वाले किसी नए तमाशे की उम्मीद में, उनके और क़रीब आने लगे। उनके लिए यह बात बड़ी अटपटी थी कि, एक प्रॉपर्टी डीलर भाई, कैसे बेशर्मों की तरह अपनी बहन से कमीशन के पैसे मांग रहा है!
“यहाँ क्या फ़िल्म चल रही है?” गुरवीर ने अपने पीछे खड़े लोगों को झिड़कते हुए कहा, “अरे जाओ आगे बढ़ो। तुम लोगों को कोई काम-धंधा है या नहीं।” खड़े राहगीर शर्मिंदा होकर अपनी राह हो लिए।
“वीर जी, अब आपसे क्या छिपा है? हमारा सारा पैसा, मकान ख़रीदने और रजिस्टरी करवाने में चला गया है।” लाजवंती ने अपना दुखड़ा भाई के आगे रोया। फिर बेमन से अपने पर्स से दस हज़ार रुपए निकालकर भाई की ओर बढ़ा दिए, “ये बंटी की स्कूल फ़ीस के पैसे हैं…” आगे के शब्द लाजवन्ती के मुँह में ही रह गए। बेबस निगाहों से वह भाई की तरफ देखती रही। शायद दया की कोई किरण शेष हो।
“देख बहना, घोडा अगर घास से यारी करेगा, तो खायेगा क्या? फिर तेरे से ज़ियादा थोड़े ले रहा हूँ।” नोट गिनते हुए गुरवीर का स्वर थोड़ा नरम हो गया। उसकी आँखों में हरे-हरे नोटों की हरियाली देखकर नई चमक पैदा हो गई थी। वह पुनः बोला, “कोई दूसरा प्रॉपर्टी डीलर होता तो पच्चीस हज़ार से एक पैसा कम न लेता।”
“सो तो है वीर जी।” लाजवन्ती के पीछे मिट्टी का माधो बने गुरवीर के जीजा हरभजन सिंह ने सहमती में सर हिलाते हुए कहा। हरभजन बेहद दुबला-पतला व्यक्ति था, बिलकुल अपनी पत्नी लाजवन्ती की तरह। दोनों पति-पत्नी ने अपना पेट काट-काट कर मकान ख़रीदा था। अच्छा भोजन उन्होंने कब किया था? इसका उन्हें ध्यान नहीं।
“तुम यहाँ खड़े-खड़े मेरी छाती पे मूंग क्यों दल रहे हो? बाज़ार से जाकर कुछ सौदा-पानी ले आओ। ” लाजवन्ती हरभजन को डांटते हुए बोली, “वीर जी खड़े हैं। उनके लिए कुछ भोजन-पानी तैयार करना है।”
“न बहना, तेरी परजाई घर में इन्तिज़ार कर रही होगी। ” गुरवीर ने पैसे जेब के हवाले करते हुए कहा, “तेरे घर किसी और दिन खाऊंगा।” और बिना वक़्त गंवाए अपने स्कूटर को किक मरते हुए गुरवीर वहां से चल दिया।
स्कूटर आँखों से जब तक ओझल न हुआ। लाजवन्ती और हरभजन एकटक उधर ही देखते रहे। पृष्ठभूमि से जब स्कूटर ओझल हुआ तो आकाश में डूबते सूरज की एक चौथाई छवि शेष रह गई थी। सम्पूर्ण वातावरण को रवि किरणों की लालिमा ने घेर लिया था।
“ये साले प्रॉपर्टी डीलर किसी के सगे नहीं होते। अपनी सगी बहन को भी नहीं छोड़ा, कमीशन के पैसे ले लिए। कैसा नीच भाई है, थू! कलंक है साला पंजाबियों के नाम पर!” वही राहगीर जिसे कुछ समय पहले गुरवीर ने तमाशाई होने की झिड़की दी थी। गुरवीर के जाने के बाद दुबारा वहां से गुजरते हुए, अपने साथ चल रहे दूसरे व्यक्ति से इस तरह बोला कि लाजवन्ती और हरभजन को यह संवाद स्पष्ट सुनाई पड़ा। शायद ऐसा कहके उस व्यक्ति ने अपनी भड़ास निकाली थी। हरभजन उनकी तरफ देखकर मुस्कुराभर दिया, जबकि लाजवन्ती का सिर शर्म से झुक गया था। उसकी निगाहें दस हाथ दूर मरे चूहे पर केन्द्रित हो गई थी। जिसका मांस एक कौवा नोचने में व्यस्त था।
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“चलो पापा-मम्मी एक बार ले चलो। हमें ज्योता वाली के दरबार ले चलो।” सुबह-सुबह दुकान के बाहर स्टूल पर खड़े होकर गुरवीर एक पुराने कपड़े से दुकान के साइन बोर्ड को चमकाते हुए, ऊँचे सुर में ‘माँ की भेंट’ गुनगुनाने लगा था।
“जय माता दी प्रापर्टीज।” लाल रंग से साइन बोर्ड पर लिखे बड़े अक्षरों को स्टूल से उतरते हुए, वह धीमे से बुदबुदाया। बोर्ड पर दुकान का पता और मोबाइल फ़ोन न० भी चमक रहे थे। साइन बोर्ड के किनारे पर छोटे अक्षरों में लिखा था —प्रो० गुरवीर मदान।
दुकान के अंदर धूपबत्ती की महक हलके धुएं के साथ वातावरण में तैर रही थी। दुकान के कोने पर लकड़ी का एक छोटा-सा मंदिर था। वैष्णों रानी की एक छोटी-सी सोने की प्रतिमा रखी थी। यह मूर्ति उसने वैष्णों देवी की यात्रा के दौरान तब ख़रीदी थी, जब उसने एक विवादास्पद ज़मीन के सौदे में भरी मुनाफ़ा कमाया था। इस वक़्त उसी मूर्ति के आगे धूपबत्ती जल रही थी। मंदिर छोटा-सा, मगर चन्दन की लकड़ी का बना था। उस पर नक्काशी का खूबसूरत महीन काम हो रखा था, जो देखते ही बनता था। सामने आधुनिक फर्नीचर—मेज़ और कुर्सियाँ, दुकान की शोभा बढ़ा रहे थे। ऊपर गुरवीर का पूरा परिवार रहता था और नीचे का हिस्सा दुकान में तब्दील था।
“ओये भगवाने, कर्मावालिये, पहले चाय तो भेज दे, अपने शौहर के वास्ते। पराठे बाद में सेक लेना।” इंटरफोन से गुरवीर ने अपनी घरवाली कुलवीर को निर्देश दिया, जो प्रथम तल पर रसोई में चाय-नाश्ता तैयार कर रही थी। तत्पश्चात वह अपनी आराम कुर्सी पर पसर गया। उसने मेज़ के नीचे अपने पैर फैला दिए।
“बोल साँचे दरबार की” कहकर उसने एक ज़ोरदार जम्हाई ली।
“जय” एक तेज स्वर दुकान के बाहर से उभरा। चेहरा जाना-पहचाना था और उसकी आवाज़ भी। इसलिए उसी मुद्रा में चौंकते हुए गुरवीर बोला, “अबे जोगिंदर तू! हुश्यारपुर तोँ कब आया?”
“बस यारा, पिण्ड से उठके सीधा तेरे पास, तेरे घर चला आ रहा हूँ।” और जोगिंदर ने दोनों हाथ फैला दिए, “आ गले लग जा।”
” क्यों नहीं?” उसी गर्मजोशी से गुरवीर ने कहा। कुर्सी से खड़ा होकर जोगिंदर की तरफ बढ़ा, गले मिलने के लिए।
“आ यारा आ, झप्पी पा ले।” और गले मिलते हुए उसने गुरवीर की पीठ पर ज़ोर से थपकी मारी।
“साले सुंअर! पीठ पर मारने की तेरी आदत नहीं गई।” गुरवीर ने दर्द से करहाते हुए कहा। तमाम अौपचारिकताओं से नबटने के उपरांत गुरवीर ने इंटरफोन हाथ में लेकर अपनी पत्नी कुलवीर कौर को निर्देश देते हुए कहा, “एक चाय और ले आना, पिण्ड से जोगी आया है, चार पराठे और लेती आना। तुझे तो मालूम ही है खाने की मामले में पूरा राक्षस है। राss… क्षss… सss…!” दूसरी बार गुरवीर ने स्वर को थोड़ा-सा लम्बा खींचते हुए राक्षस शब्द को तोड़ते हुए, जोगिन्दर की तरफ बड़ी विचित्र दृष्टि से देखा था। जोगी ने आँखें बड़ी करके अपनी जीभ बाहर निकल कर गुरवीर के कहे अनुसार राक्षस बनने की कोशिश की।
“ये क्या कर रहे हो?” कहते हुए गुरवीर की हंसी छूट पड़ी।
“तेरे कहे को किये में ढाल रहा हूँ यारा। पर ए तुसी चंगा कित्ता पराह। पराठे दा नाम सुनके, मेरे भीतर के राक्षस को ज़ोरों की भूख लग गई है।” अपने पेट पर हाथ मलते हुए जोगी ने कहा और एक डकार ली, “खाली पेट दी डकार हैगी।”
“रब दा शुक्र है, तुसी मुह ते ही डकार लित्ति।” गुरवीर के इस कथन पर दोनों यार खुल के हंस दिए। गप्पों का दौर जारी रहा।
कुछ ही देर बाद कुलवीर कौर पराठे और चाय एक ही तश्तरी लेकर हाज़िर हुई तो जोगिन्दर तपाक बोला, “सत श्री अकाल परजाई जी … त्वाडे पराठे दियां महक तो अंतर-आत्मा विच समा गई। गुरवीर बड़ा लक्की है। ”
“मेरी साली जसविंदर जवान हो गई है। तू कहे तो तेरी बात चलाऊँ यारा!” गुरवीर ने हाथों से अपने बाल सेट करते हुए कहा।
“ओ न जी न। अस्सी छड़े ही चंगे! कहाँ फंसा रहे हो? शादी तो जी दा जंजाल हैगा!” जोगिन्दर कुर्सी पर फैल गया, “फिर तेरा करेक्टर मैं नहीं जानता क्या?” कहकर जोगिन्दर ने पराठे की प्लेट हथिया ली। ठहाका।
“अबे साले, एक तो दे दे। देसी घी के छः पराठे पचा लेगा क्या?” गुरवीर चाय का प्याला हाथ में लिए बोला, “खाली पेट चाय पीने से मेरे पेट में गैस हो जाती है। भागवाने तू खड़ी-खड़ी क्या देख रही है? एक-दो पराठे और ले आ! ये पाजी तो देने वाला नहीं है!” अपनी घरवाली की तरफ देखकर गुरवीर ने वाक्य ख़त्म किया। कुलवीर कौर को दोनों की बातों में बड़ा लुत्फ़ आ रहा था।
“ले तू भी क्या याद करेगा?” आधा पराठा गुरवीर की ओर फैंकते हुए जोगिन्दर बोला, “किस रहीस से पाला पड़ा है?”
“मैं और ले आती हूँ, मैंने बनाके रखे हैं। ” कुलवीर हंसने लगी।
“परजाई तू बैठ आराम से, अपने देवर के साथ गपशप कर।” जोगिन्दर ने कुलवीर कौर का हाथ पकड़ के उसे अपने बगल में बैठा लिया। तीनों प्राणी गपशप करने लगे। हाल ही में घटे गांव के ताज़ा किस्सों को मनोरंजक बनाते हुए जोगिन्दर ने खूब नमक-मिर्च लगा कर सुनाए। कुछ चुटकुले भी। इस बीच चाय का एक दौर और चला। कुलवीर कौर ख़ुशी-ख़ुशी ऊपर जाकर गरमा-गरम चाय और बाकी बचे हुए पराठे भी ले आई थी। जिन्हें भी जोगिन्दर ने अपने मुंह से निगलते हुए विशाल अजगरनुमा पेट में छिपा लिया था। अंत में डकार लेते हुए जोगिन्दर बोला, “मज़ा आ गया परजाई, तेरे हाथ के पराठे खाके। ऐसे स्वाद पराठे पूरी ज़िंदगी में नहीं खाए!”
“अब ये कुर्सी-मेज़ बची है! दस पराठों के बाद इनको भी निगल जा! तेरे एनाकोंडा जैसे पेट में अभी भी काफी जगह होगी?” गुरवीर को अपने हिस्से के पराठे की कुछ कसक बाक़ी थी, “इस तरह तेरा नाश्ते का कोटा भी पूरा हो जायेगा!”
“खबरदार जो देवर जी के लिए एक शब्द भी बोला।” कुलवीर कौर ने अपने पति को टोकते हुए कहा, “एक देवर जी हैं, जो इतनी तारीफ कर रहे हैं। और दूसरी तरफ आप हैं, जो एक पराठा खाकर ऊब जाते हैं! कहते हैं तुझे ठीक से पराठे बनाने भी नहीं आते!” कुलवीर कौर ने जोगिन्दर से गुरवीर की शिकायत की।
“एक दिन का खाना हो तो बन्दा तारीफ़ भी करे!”, गुरवीर ने अपनी पत्नी से दिल्ल्गी करते हुए कहा, “रोज़-रोज़ झेलना पड़े तो पता चले इस जोगी के बच्चे नू!”
“परजाई हीरे दी कदर, जौहरी ही कर सकता है! तवाड़ा ख़सम तो लोहार है! तू इसको फालतू बकवास करने दे! मुझे कोई दिक्कत नहीं! इसे कलसने दे! ये दिल की भड़ास निकलने के सिवा कर भी क्या सकता है? ” जोगिन्दर ने कहा तो कुलवीर कौर ठहाके लगाकर हंसने लगी। गुरवीर अपना सा मुंह लेकर रह गया। इस बीच जोगिन्दर की बक-बक ज़ारी रही। जिसे गुरवीर झकमार कर सुनता रहा।
“अरे हाँ कुलवीर, ये ले दस हज़ार रुपए। सेफ में रख देना।” अपनी मेज़ की दराज़ से रूपये निकलने के उपरान्त गुरवीर ने कहा।
कुलवीर ने रुपये और तमाम खाली बर्तन समेटे।जिन्हें लेकर वह ऊपर चली गई।
“कहाँ हाथ मारा। सुबह-सुबह दस हज़ार की मोटी रकम भाभी जी को थमा दी।” जोगी ने दुबारा डकार ली।
“अरे कुछ नहीं यारा। कल बहन लाजवन्ती ने दिए थे। उसको मैंने बढ़िया मकान दिलवाया था और रजिस्टरी भी करवा दी थी। बहुत ही कम दामों में। ” और गुरवीर ने शेखी बघारते हुए कल घटित हुआ सारा किस्सा कह सुनाया, “अरे लाजवन्ती तो मेरा कमीशन का पैसा दे ही नहीं रही थी। वो तो मैंने बेशर्म होकर माँगा। मैंने बीच चौराहे पर ही चिल्लाकर कहा था—देख भाई-बहन का रिश्ता अपनी जगह पर है, लेकिन मैं कमीशन के पैसे नहीं छोड़ने वाला। तू पहले मेरे कमीशन का पैसा दे।” इसे गुरवीर ने अपनी एक बड़ी उपलब्धि मानते हुए जोगिन्दर को ‘लाजवन्ती से पैसा मांगने वाला वाक्या’ हू-ब-हू दुबारा से सुनाया, “वो तो बहाना बना रही थी कि बंटी की स्कूल की फ़ीस देनी है। मगर मैं कहाँ छोड़ने वाला था!”
“अबे कंजर! सगी बहन को तो छोड़ देता! लानत है तेरे जैसे भाई पर, बहन से भी कमीशन! वो भी बीच रोड में! दोगुनी लानत है तेरे पर!” जोगिन्दर ने गुरवीर को लताड़ा, “अबे बहन और बेटी को तो ज़िंदगी भर दिया है, कुछ लेते थोड़े हैं!”
“देख जोगी, रिश्तेदारी अपनी जगह और कमीशन अपनी जगह।” गुरवीर ने दो टूक शब्दों में कहा, “और ये फालतू की नसीहत रहने दे। अभी-अभी जो तूने चाय-पराठे खाए हैं और कीमती फर्नीचर पर आराम से पसरा हुआ है। ये सब फ्री का नहीं आता है। इसके लिए पैसा लगता है। पैसा ! ऐसे कमीशन छोड़ने लगा तो हो लिया धंधा-पानी। ” जोगिन्दर चुपचाप गुरवीर की अमृतवाणी सुन रहा था।
“गुरवीर तू बिजनेसमैन तो बन गया मगर व्यवहारिक नहीं है।” जोगी ने बड़ी गंभीरतापूर्वक कहा।
“वैसे किस काम से आया था तू ?” गुरवीर ने इतनी देर बाद दो टूक शब्दों में जोगिन्दर से आने का प्रयोजन पूछा! जिस तरीक़े से पूछा वो सब जोगी को अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन प्रत्यक्ष में उसने अपना क्रोध प्रदर्शित नहीं किया। उसने हृदय में यह तय किया कि सही वक़्त आने पर वो गुरवीर को जवाब देगा।
“क्या बताऊँ यारा ? चाचा जी अब यहाँ अकेले रहते-रहते बोर हो गए हैं! बाक़ी जीवन होशियारपुर में ही बिताना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि पंजाब की मिट्टी, पंजाब में ही ठिकाने लगे।” बड़ी ही दर्शनिकतापूर्वक जोगी ने कहा। फिर अपनी सोने की चैन पर उंगली फिराते हुए कहा, “अपना मकान बेचना चाह रहे हैं। किसी और प्रॉपर्टी डीलर को तो मैं नहीं जनता। इसलिए पिण्ड से उठकर सीधा तेरे पास चला आया हूँ। ” जोगिन्दर ने अपने होंठो पर मुस्कान लाते हुए कहा।
“अरे यार मेरी बात का बुरा मत मानना।” गुरवीर ने जोगी के पैर पकड़ने की कोशिश की, तो जोगी ने उसके हाथों को घुटनों पर ही रोक दिया, “मेरी नज़र में एक पार्टी है। तुम्हारे चाचा जी का मकान मैंने देखा हुआ है। वह उस आदमी को ज़रूर पसंद आएगा क्योंकि उसको ठीक वैसा ही मकान चाहिए, जैसा चाचाजी ने बनाया हुआ है! चाचाजी को मुंहमांगी कीमत मिल जाएगी।”
जोगी गुरवीर की बातें सुनकर हंसने लगा। उसने मन ही मन सोचा! ये बिजनेसमैन है। इसके लिए मान-अपमान, रिश्ते-नाते कुछ भी मायने नहीं रखते। शायद लक्ष्मी का वाहन ‘उल्लू’ इसलिए ही है कि जिसके सिर पर पैसा नाचता है। वह खुद ‘उल्लू’ हो जाता है। यहाँ इसे दोस्त नहीं, दोस्त की शक्ल में आते हुए पैसे दिखाई दे रहे हैं! इसलिए उम्र में मुझसे काफ़ी बड़ा होते हुए भी मेरे पांव छूने को तैयार है।
“क्या सोच रहे हो मित्र?” गुरवीर ने जोगी को सोचपूर्ण मुद्रा में देखा तो बोला, “इसमें तुम्हारा भी फायदा है। मैं अपनी कमीशन में से तुम्हे कुछ प्रतिशत दे दूंगा।”
“मैं सोच रहा हूँ कि कहीं लक्ष्मी का वाहन ‘उल्लू’ तू ही तो नहीं है!” जोगिन्दर ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाते हुए कहा।
“अरे यार मैं बुरा नहीं मानूंगा, तू कुछ भी कह!” गुरवीर हंसते हुए बोला, “तू मेरा भाई है! सच्चा दोस्त है!” कहते हुए जोगी के हाथ को चूमकर गुरवीर यह जताने लगा कि वह जोगी को कितना मानता है।
“चल फिर देर क्यों कर रहा है, कहीं ग्राहक हाथ से निकल न जाये? मैं झाड़-पोंछकर स्कूटर तैयार करता हूँ।” फिर गुरवीर ने इंटरफोन पर अपनी बीबी से संपर्क साधा, “सुन भगवाने मैं जोगी के साथ, उसके चाचा के घर जा रहा हूँ। मेरे लिए दिन का खाना मत बनाना।”
फिर अपनी जेब में रखे मोबाइल फ़ोन से उसने एक फ़ोन लगाया। जो तुरन्त लग गया।
“अरे कालरा साहब कहाँ व्यस्त हैं? इतनी देर से फ़ोन ट्राई कर रहा हूँ कि अगर रॉकेट होता तो उसका पृथ्वी से चाँद तक का सफर तय हो जाता।” गुरवीर ने मज़ाक़िया मूड में कहा।
“तो पृथ्वी पर क्या कर रहे हो?” कालरा ने भी नहले पर दहला मारते हुए कहा, “उसी रॉकेट में बैठकर चाँद पर निकल जाते!”
“मज़ाक़ छोडो यार, मैंने तुम्हें ख़ास इसलिए फ़ोन किया है कि एक बहुत बड़े फायदे का सौदा हाथ में आ गया है।” गुरवीर ने तुरंत मुद्दे पर आते हुए कहा, “एक कोठी है, कोठी क्या, महल है महल!”
“तुम प्रॉपर्टी डीलर वालों का भी अजीब रवैया है। हमारे महल को तो झोपड़ा बताकर ख़रीदते हो! और अपने झोपड़े को भी महल बता कर बेचते हो!” कालरा ने व्यंग किया। फ़ोन की सभी बातें जोगिन्दर भी सुन रहा था, क्योंकि मोबाइल का लाऊड स्पीकर ऑन था।
“भाई तेरे को तो पता ही है, अगर दो पैसे का फ़ायदा न हो, तो दुकान खोलकर क्या फ़ायदा? ख़ैर मैं तो तेरे फ़ायदे की बात कह रहा था अब तू नहीं सुनना चाहता तो कोई बात नहीं!” इतना कहकर गुरवीर ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया। वह समझ चुका था कि कालरा से बात करके दाल गलने वाली नहीं।
गुरवीर ने धड़ाधड़ दो-चार फ़ोन और किये। लेकिन इस बार लाऊड स्पीकर ऑफ़ कर दिया ताकि जोगिन्दर उसकी कोई बात न सुन ले! क्योंकि ऐसी बातों से गुरवीर का चेहरा उजागर होता है। उसके चेहरे पर छिपा भेड़िये का चेहरा, लोगों को नज़र आने लगता है! अंतिम फ़ोन करते वक्त उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान तैरने लगी। शायद उसने अंतिम व्यक्ति को नए सौदे के लिए पटा लिया था। इस बीच जोगी माचिस की तिल्ली से दांतों की सफाई कर रहा था। साथ ही वह सोच रहा था कि मेरा दोस्त कितना बड़ा शिकारी बन गया है। जो किसी भी सूरत में शिकार को हाथ से नहीं निकलने देना चाहता। दाँत खुरचने वाली मुद्रा में ही जोगी, गुरवीर के पीछे-पीछे बाहर खड़े स्कूटर में बैठने तक चलता रहा।
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स्कूटर ठीक चाचा करनैल सिंह की कोठी के सामने रुका। खुली हवादार दो मंज़िला कोठी के सामने छोटा सा बगीचा, कोठी को चार चाँद लगा रहा था। जहाँ अनेक प्रकार के फूलों के पौधे थे जिनमें बेला, गुलाब, चम्पा, जूही, चमेली, सदाबहार आदि के फूलों की सुगन्ध वातावरण को महका रही थी। चाचाजी ने द्वार खोला तो पहले जोगी ने चाचाजी के चरण छुए। तो जोगी को “ज्यून्दा रह पुत्तर।” का आशीर्वाद मिला, फिर गुरवीर ने भी उसका अनुशरण करते हुए कहा, “पैरी पोणा चाचा जी।”
“ज्यून्दा रह पुत्तर।” जोगिन्दर के बाद चाचा जी ने गुरवीर को भी उसी स्वर में आशीष दी।
“आहा! चिकन की कितनी जबरदस्त खुशबू आ रही है। ” भीतर कक्ष में कुछ सूंघते हुए जोगिन्दर बोला। गुरवीर जोगिन्दर के व्यवहार पर हैरान था कि, ‘नाश्ते में दस पराठे खाने वाले व्यक्ति को इतनी जल्दी भूख कैसे लग आई है? कहीं ये आदमी गाँव में पिछले आठ-दस दिन से भूखा तो नहीं था?’
“कल तेरा फ़ोन आते ही मैंने खाने-पीने की तैयारियाँ शुरू कर दी थी,” चाचा जी ने दरवाज़ा भेड़ते हुए कहा, “कल ही व्हिस्की की छह बोतलें फौजी कैंटीन से उठा लाया था और आज सुबह-सुबह चार किलो चिकन ले आया था।”
“छह बोतल व्हिस्की और चार किलो चिकन!” गुरवीर हिसाब-किताब लगाते हुए बोल पड़ा, “कम से कम दो-ढाई हज़ार रुपया तो खर्च हो गया होगा चाचा जी! कोई बड़ी पार्टी-शार्टी कर रहे हैं, पंजाब जाने से पहले!”
“अबे ये हमारे खाने-पीने का तरीक़ा है मक्खीचूस।” जोगी ने चाचाजी की तरफ़ देखकर कहा। दोनों चाचा-भतीजे ठहाका लगाकर बड़ी ज़ोर से हँसे।
“ये तो हमारे दो दिन का कोटा है। ” चाचाजी ने सोफ़े पर फैलते हुए कहा, “सब कुछ तैयार है। जग में पानी है। काँच के प्याले हैं। पीने को शराब। खाने को चिकन कबाब। अरे खड़े-खड़े क्या सोच रहे हो, बैठो और टूट पड़ो। जश्न मनाओ।” चाचाजी ने बड़े ही रहीसों वाले अंदाज़ में कहा। तीनों प्राणी दावत का लुत्फ़ लेने लगे। गप्पशप का दौर भी ज़ारी था। जोगिन्दर ने गांव के ताज़ा किस्से फिर से सुनाने शुरू कर दिए। जिन्हें सुन-सुन गुरवीर पहले ही पक चुका था। इस बीच चाचाजी व्हिस्की की एक बोतल निपटा चुके थे! गुरवीर और जोगी को भी कुछ कुछ चढ़ने लगी थी, ये दोनों जने दूसरी बोतल से पैग बनाकर पी रहे थे, जो अभी आधी भी ख़त्म नहीं हुई थी।
“चाचा जी, एक बात बताओ।” गुरवीर ने करनैल सिंह की तरफ़ देखते हुए ऐसे पूछा, जैसे वो कोई अजूबा हों, “आपको पीने से कोई रोकता नहीं।”
“अब कौन रोकेगा? जब तक तुम्हारी चाची ज़िन्दा थी, उसने ‘वाहेगुरु जी’ दी सौं देकर कभी पीने नहीं दिया। बस उसकी शराबी आँखों से पीते थे।” करनैल सिंह ने नशे की अधिकता में अपने दिल की बात कही। उसके आगे अपनी स्वर्गीय पत्नी सतनाम कौर का चेहरा घूम गया। सतनाम की मुस्कुराती हुई एक बड़ी-सी फोटो दीवार पर टंगी थी। दोनों पति-पत्नी में बड़ा प्यार था। पैंतीस बरस तक दाम्पत्य सुख का दोनों ने आनंद लिया, मगर अौलाद के सुख से वंचित रहे। अपने बड़े भाई जरनैल सिंह के इकलौते बेटे जोगिन्दर सिंह को करनैल सिंह ने अपनी सारी जमापूंजी देने का निश्चय किया था और शेष जीवन पंजाब में भतीजे के साथ बिताने का फैसला किया था। इसलिए पंजाब से जोगी को बुलवाया था, ताकि सब लेन-देन उसके सामने ही हो सके, जिसके साथ जीवन बिताना है। इस बीच खाते-पीते करनैल सिंह अपनी पत्नी से जुडी कई यादें सुनते रहे।
“चाचा जी, एक बात पूछूँ?” गुरवीर ने कहा।
“पूछो!” करनैल सिंह ख़ाली गिलास को मेज़ पर रखते हुए और चिकन लेग पीस उठाते हुए बोले।
“चाची जी की फोटो पे हार क्यों नहीं है?” गुरवीर ने मदिरा के ख़ुमार में झूमते हुए कहा।
“दुनिया की निगाह में भले ही सतनाम मर चुकी है, मगर मेरे लिए वो आज भी ज़िंदा है।” करनैल सिंह ने अजीब से अंदाज़ में कहा। तीनो प्राणी सामने दीवार पर टंगी चाची सतनाम कौर की फोटो की तरफ ध्यान से देखने लगे।
कुछ समय बाद एक कॉल बैल बजी।
“मैं देखता हूँ। ” व्हिस्की का तीसरा पैग हलक से नीचे उतारने के बाद जोगी खड़ा होते हुए बोला।
“कौन आया होगा इस वक़्त?” चाचाजी ने हैरानी व्यक्त की।
“होगा कौन? अमित सुनेजा आया होगा!” गुरवीर ने झूमते हुए कहा।
“कौन अमित सुनेजा?” जोगी जी को भी मदिरा चढ़ गई थी।
“चाचा जी की कोठी खरीदना चाह रहा है। मैंने घर से निकलने से पहले ही उसे फ़ोन कर दिया था और चाचा जी का पता लिखवा दिया था।” गुरवीर ने ख़ाली प्याला मेज़ पर रख दिया और चिकन का लेग पीस उठकर चबाने लगा।
“करनैल साहब का मकान यही है।” दरवाज़ा खुलते ही आगंतुक ने जोगिन्दर से प्रश्न क्या।
“आजा भई सुनेजा … भीतर आ जा। ” इससे पहले जोगी कुछ कहता। पीछे से गुरवीर का तेज स्वर उभरा।
“आओ जी बैठो सुनेजा साहब। सही मौक़े पर आये हो, एक पैग तो लेना बनता ही है!” चाचाजी बोले, “जोगी जा, किचन से एक गिलास उठा ला।”
“आप लोग भोजन कीजिये। मैं सोफे पर बैठकर, उधर आप लोगों के फ्री होने का इन्तिज़ार करता हूँ। ” सुनेजा ने औपचारिकतावश कहा।
“भई मना मत कर वरना चाचाजी नाराज़ हो जायेंगे। गपशप के बीच काम-धाम की बात भी कर लेंगे। जिनकी कोठी तूने लेनी है, वो करनैल साहब, यानि हमारे प्यारे चाचाजी सामने बैठे हैं। मैं यानि प्रॉपर्टी डीलर गुरवीर भी यही बैठा हूँ। ” गुरवीर ने लेग पीस सुनेजा के आगे बढ़ाते हुए कहा।
“मैं अपने आप खा लूंगा भाई साहब।” जो सुनेजा अब तक शर्म की मूर्ति बना औपचारिकताएं निभा रहा था। अचानक मेजबानों के रंग में रंग गया, “पहले कुछ पी तो लूँ।” सबका मिश्रित एक ठहाका सा पूरे वातावरण में गूंज गया।
“ये हुई न पंजाबियाँ वाली गल!” चाचाजी ठहाका लगते हुए बोले, “भला खाण-पीण विच शर्म कैसी?”
लगभग दो-ढाई घंटे तक खाने-पीने के बाद सुनेजा ने बियाने के पचास लाख रूपये नकद चाचा करनैल सिंह के हाथ में दिए। पौने चार करोड़ में सौदा तय हुआ था। तब जाकर सुनेजा झूमता-गाता हुआ विदा हुआ ये कहकर,”चाचा जी तवाड़ी व्हिस्की तो जबरदस्त है, मैं एक बोतल थैले में डालकर अपने साथ ले जा रहा हूँ…. तवानु ऐतराज़ तो नई हैगा!”
“ओ ऐतराज़ कैसा पुत्तर! एक नहीं तू दो बोतल ले जा पुत्तर!”, चाचा जी का जवाब था, “पूरा एन्जॉय कर लाइफ दा।”
“ले भाई, फ़िलहाल चार लाख पकड़!” सुनेजा के जाने के बाद करनैल सिंह ने गुरवीर को पचास लाख रुपये में से निकालकर चार लाख थामते हुए कहा।
“और जोगी, बाक़ी रुपया तू रख।” चाचाजी ने अटैची जोगिन्दर को थमाते हुए कहा, “अब मुझको और मेरी सम्पति को तूने ही संभालना है।” कहते हुए करनैल सिंह की आँखों में आँसू आ गए और जोगी की आँखें भी नम हो उठीं।
“थैंक यू चाचाजी….,” गुरवीर ने अपने हाथों में पहली बार कमीशन के इतने रुपये देखे थे, “मैंने आज तक किसी को कमीशन का पैसा एडवांस में देते नहीं देखा?”
“ओ गुरवीर पुत्तर, थैंक यू तो तुम्हारा है जी! क्योंकि मुझे न तो प्रॉपर्टी डीलर के पास जाना पड़ा! ऊपर से बिना किसी अड़चन के मुझे मुंह मांगे दाम मिल गए हैं! सब तेरी वजह से!” चाचाजी ने नशे में झप्पी पाते हुए गुरवीर से कहा, “जिस दिन पूरे पैसे मिल जायेंगे, बाक़ी कमीशन और इनाम के रूप में तुझे उस दिन भी और पैसे दूंगा!”
“थैंक्यू चाचाजी।” गुरवीर ने मारे ख़ुशी के चाचाजी को कसकर बाँहों में भींच लिया।
“अच्छा अब मेरा काम पूरा हो गया। मैं भी चलता हूँ। चाचाजी। ” गुरवीर ने रुपये जेब में डालते हुए कहा।
“नहीं….. अभी तेरा काम ख़त्म नहीं हुआ है।” जोगी ने गुरवीर का हाथ पकड़ लिया।
“मतलब!” गुरवीर हैरानी से बोला।
“मतलब ये कि दुनिया में तीन तरह के इंसान होते हैं!” जोगिन्दर का स्वर बुलंद हो गया, “एक चाचाजी जैसे, जो दूसरों के लिए जीते हैं! दूजा मैं, जो खुद के लिए भी जीते हैं, और दूसरों के लिए जीते हैं! तीजे तुझ जैसे, कमीने स्वार्थी और खुदगर्ज होते हैं, जो सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं। थू है तुझ पर …,” कहते हुए जोगिन्दर ने गुरवीर के चेहरे पर थूक दिया।
“अभी तू होश में नहीं है।” गुरवीर ने रूमाल से अपने चेहरे पर गिरे थूक को साफ़ करते हुए कहा।
“तू ये मत समझना, मैंने शराब पी है, तो ये सब कह रहा हूँ। मैं पूरे होशो-हवास में हूँ।” जोगिन्दर ने चाचाजी को सारा किस्सा कह सुनाया। जो कुछ गुरवीर ने बहन लाजवन्ती के साथ किया था। चाचाजी ने जिन निगाहों से गुरवीर की तरफ़ देखा। उसके बाद गुरवीर चाचाजी से नज़रें नहीं मिला मिला सका। वह आत्मगिलानी से भर उठा! उसे पहली बार अहसास हुआ कि बिजनेस करते-करते वो कितना नीच-स्वार्थी हो गया है? बहन लाजवन्ती जो इस वक़्त एक-एक पैसे के लिए संघर्ष कर रही है, उससे पैसा लेकर उसने कितना बड़ा गुनाह किया है? उसे बिंदास चाचा करनैल सिंह जी और दोस्त जोगी के अपना चरित्र बड़ा नीचता से भरा जान पड़ा, अपराध बोध से ग्रस्त गुरवीर के आँसू छलछला आये!
“कायर अब सर झुकाये क्या खड़ा है? ले पकड़ ये पैसा, ये मेरी तरफ से बहन लाजवन्ती को दे देना। उसे बंटी की स्कूल फ़ीस भरनी होगी।” जोगिन्दर ने अपने सूटकेस में से दो लाख रुपये गुरवीर के मुंह पर मरते हुए कहा। पैसे फर्श पर गिर पड़े, “बहन लाजवन्ती भी तो देखे कि उसके सगे भाई से बड़ा दिल उसके मुंहबोले भाई जोगी का है।”
“मुझे और शर्मिंदा मत करो, मेरे भाई जोगी….,” गिरे हुए पैसे लौटते हुए गुरवीर ने जोगिन्दर से कहा, “तुम अपने पैसे अपने पास रखो! मैं अभी बहन लाजवन्ती के घर जाकर उसे आज ये चार लाख रुपये दे दूंगा और अपने गुनाह की माफ़ी भी मांग लूंगा।”
“साले तुझे जैसे लोगों ने ही पंजाबियों का नाम ख़राब किया है। ” जोगिन्दर का गुस्सा बरक़रार था।
“प्लीज़ जोगी मुझे माफ़ कर दे, मैं तेरे पांव पड़ता हूँ।” गुरवीर सचमुच जोगिन्दर के चरणों में झुक गया।
“अबे निर्लज माफ़ी मांगनी हैं तो बहन लाजवन्ती से मांग, मेरे पांव क्या छूता है!” जोगिन्दर का अक्कडपन अब भी चरम पर था।
“ओये जोगी, मेरे प्यारे पुत्तर, अब माफ़ भी कर दे गुरवीर नू। ” चाचा करनैल सिंह ने जोगिन्दर के गाल पर अपने हाथ से हलकी सी प्यारी सी थपकी मारी, “सुबह का भुला, अगर शाम को घर आ जाए. तो उसे भुला नहीं कहते।”
चाचाजी के आग्रह करने पर दोनों दोस्त गले मिल गए। मदिरा में इतना असर तो होता ही है कि जो कुछ आदमी के दिल में होता है। ज़ुबान पर आ ही जाता है और दिल से कही हुई बात हमेशा दिल पे असर करती है, गहरे और गहरे तक!
“गुड! इसे कहते हैं, अंत भला तो सब भला।” दोनों को गले मिलता देख चाचा करनैल सिंह के मुंह से यह संवाद अपने-आप निकल पड़ा।