अंतहीन यात्रा
शरीर, क्या है, बस जन्म लेने का माध्यम या फिर एक सौभाग्य भी जन्म देने का। सुमन की थरथराती ऊंगलियां अपने ही शरीर को टटोलकर देखती रहीं बहुत देर तक। क्या सुकून है इसमें अपने लिये या किसी के लिये भी।
जब से अस्तित्व में आता है तमाम रिश्ते अनगिनत अहसासों से स्वत: ही भर जाता है, मैं तू बन जीता है। खेलता है मुस्काता है, सजाता है इसे , संवरता है किसी के लिये क्षणिक सुख की परिकल्पना मात्र से क्या नहीं नहीं कर गुज़रता। स्वार्थी हो जाता है। कभी कभी ‘मेरा’ को किसी के साथ नहीं बांटना चाहता। भूल जाता है मेरा क्या है बस मिट्टी।
अखिल भी यूं ही उलझता जा रहा था सुमन से जुड़े जन्म के या अहसास के सारे रिश्ते उसकी आंखो में चुभने लगे थे। उस पर अपना एकाधिकार होने की भावना ने उसे भावशून्य कर दिया। दोस्ती प्यार विश्वास सभी से छल कर बैठा और उसे पता भी नहीं चला कि क्या कर गया।
अखिल को सुमन कभी समझा नहीं पाई और अखिल खोता चला गया अपना अस्तित्व भी सुमन की आंखो में और सुमन एक निर्जीव ज़िंदगी की ओर बढ़ चली जो न रात होने का इंतज़ार करती न दिन का। शायद अंत से पहले की ये ही उसकी अंतहीन यात्रा है।