Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
8 Mar 2017 · 13 min read

“अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और भारतीय महिलाएँ”

“अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और भारतीय महिला” अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस हर वर्ष, 8 मार्च को मनाया जाता है।विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है।
कुछ क्षेत्रों में, यह दिवस अपना राजनीतिक मूलस्वरूप खो चुका है, और अब यह मात्र महिलाओं के प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्त हेतु एक तरह से मातृ दिवस और वेलेंटाइन डे की ही तरह बस एक अवसर बन कर रह गया हैं। हालांकि, अन्य क्षेत्रों में, संयुक्त राष्ट्र द्वारा चयनित राजनीतिक और मानव अधिकार विषयवस्तु के साथ महिलाओं के राजनितिक एवं समाजिक उत्थान के लिए अभी भी इसे बड़े जोर-शोर से मनाया जाता हैं। कुछ लोग बैंगनी रंग के रिबन पहनकर इस दिन का जश्न मनाते हैं।
सबसे पहला दिवस, न्यूयॉर्क शहर में 1909 में एक समाजवादी राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में आयोजित किया गया था। 1917 में सोवियत संघ ने इस दिन को एक राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया, और यह आसपास के अन्य देशों में फैल गया। इसे अब कई पूर्वी देशों में भी मनाया जाता है। इस दिन सम्पूर्ण विश्व की महिलाएँ देश, जात-पात, भाषा, राजनीतिक, सांस्कृतिक भेदभाव से परे एकजुट होकर इस दिन को मनाती हैं। महिला दिवस पर स्त्री की प्रेम, स्नेह व मातृत्व के साथ ही शक्तिसंपन्न स्त्री की मूर्ति सामने आती है। इक्कीसवीं सदी की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफ़ी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है। आज के समय में स्त्रियों ने सिद्ध किया है कि वे एक-दूसरे की दुश्मन नहीं, सहयोगी हैं। संयुक्त राष्ट्र हर बार महिला दिवस पर एक थीम रखता है ,जो इस प्रकार हैं—
1975 — “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता दी”
1996 — “भूतकाल का जश्न, भविष्य की योजना”
1997— “महिला और शांति की मेज”
1998 — “महिला और मानव अधिकार”
1999 — “महिलाओं के खिलाफ हिंसा मुक्त विश्व”
2000–“शांति के लिये महिला संसक्ति”
2001– “महिला और शांति: विरोध का प्रबंधन करती महिला”
2002 — “आज की अफगानी महिला: वास्तविकता और मौके”
2003 –“लैंगिक समानता और शताब्दी विकास लक्ष्य”
2004 –“महिला और एचआईवी/एड्स”
2005–“2005 के बाद लैंगिक समानता; एक ज्यादा सुरक्षित भविष्य का निर्माण कर रहा है”
2006 — “निर्णय निर्माण में महिला”
2007 — “लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिये दंडाभाव का अंत ”
2008 –“महिलाओं और लड़कियों में निवेश”
2009 –“महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को खत्म करने के लिये महिला और पुरुष का एकजुट होना”
2010–“बराबर का अधिकार,बराबर के मौके: सभी के लिये प्रगति”
2011 — “शिक्षा, प्रशिक्षण और विज्ञान और तकनीक तक बराबरी की पहुँच: महिलाओं के लिये अच्छे काम के लिये रास्ता”
2012 — “ग्रामीण महिलाओं का सशक्तिकरण, गरीबी और भूखमरी का अंत”
2013–“वादा, वादा होता है: महिलाओं के खिलाफ हिंसा खत्म करने का अंत आ गया है”
2014 — “वादा, वादा होता है: महिलाओं के समानता सभी के लिये प्रगति है”
2015 — “महिला सशक्तिकरण- सशक्तिकरण इंसानियत: इसकी तस्वीर बनाओ! (यूएन के द्वारा),महिला सशक्तिकरण पर पुनर्विचार और 2015 में लैंगिक समानता और उससे आगे” (यूनेस्को के द्वारा) और “तोड़ने के द्वारा” (मैनचेस्टर शहर परिषद के द्वार)।
2016 — “इसे करना ही होगा” 2017–“बी बोल्ड फॉर चेंज” “भारतीय महिलाओं की वास्तविक दशा व स्थिति” “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते ,रमन्ते तत्र देवता।” सहधर्मिणी, संस्कारिणी, नारायणी की प्रतीक नारी की महत्ता को शास्त्रों से लेकर साहित्य तक सर्वदा स्वीकारा गया है।नारी की वास्तविक स्थिति पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलेगा कि भारत में प्राचीन काल से लेकर आज तक कोमलता, सहृदयता,त्याग-समर्पण, क्षमाशीलता,सहनशीलता की प्रतिमूर्ति समझी जाने वाली नारी की दशा में आशातीत परिवर्तन होता चला आ रहा है। ऋग्वेद में विश्वरा, अपाला, लोमशा, जैसी विदुषियों ने सूक्तों की रचना की वहीं मैत्रेयी,गार्गी,अदिति जैसी विदुषियों ने तत्त्वज्ञानी पुरुषों का मार्गदर्शन भी किया था।स्पष्ट है कि वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ़ थी। शैक्षिक अधिकार के साथ -साथ परिवार तथा समाज में भी नारी का सम्मान किया जाता था। सम्पत्ति में उन्हें बराबर का हक प्राप्त था। वे सभा व समितियों में स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेती थीं। शिक्षा, धर्म, व्यक्तित्व और सामाजिक विकास में उनका महान योगदान था। संस्थानिक रूप से स्त्रियों की अवनति उत्तर वैदिककाल से शुरू हुई। इस समय उनके लिए निन्दनीय शब्दों का प्रयोग होने लगा। उनकी स्वतंत्रता और उन्मुक्तता पर अनेक प्रकार के अंकुश लगाये जाने लगे। मध्यकाल मे इनकी स्थिति और भी दयनीय हो गयी। पर्दा प्रथा इस सीमा तक बढ़ गई कि स्त्रियों के लिए कठोर एकान्त नियम बना दिए गये। शिक्षण की सुविधा पूर्णरूपेण समाप्त हो गई। मध्यकाल में बाबर एवं मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण के साथ और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आज़ादी और अधिकारों को सीमित कर दिया।भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीत ने परदा प्रथा को भारतीय समाज में ला दिया। राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी,भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियों या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था, बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी,कई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया ।इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की।रज़िया सुल्तान दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला सम्राज्ञी बनीं। जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ ने राजशाही शक्ति का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया और मुगल राजगद्दी के पीछे वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की।मुगल राजकुमारी जहाँआरा और जेबुन्निसा सुप्रसिद्ध कवयित्रियाँ थीं और उन्होंने सत्तारूढ़ प्रशासन को भी प्रभावित किया। शिवाजी की माँ जीजाबाई को एक योद्धा व प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता के कारण क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित किया गया था। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गाँवों, शहरों और जिलों पर शासन किया और सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों की शुरुआत की । भक्ति- आंदोलन ने भी महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्त्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया। राजस्थान की महिला संत-कवयित्री मीराबाई भक्ति -आंदोलन के सबसे महत्त्पूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवयित्रियों में अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लाल देद आदि शामिल हैं। यूरोपीय विद्वानों ने 19वीं सदी में यह महसूस किया था कि हिंदू महिलाएँ स्वाभाविक रूप से मासूम और अन्य महिलाओं से अधिक सच्चरित्र होती हैं। अंग्रेजी शासन के दौरान राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फ़ुले, आदि जैसे कई सुधारकों ने महिलाओं के उत्थान के लिये लड़ाइयाँ लड़ीं। हालाँकि इस सूची से यह पता चलता है कि राज युग में अंग्रेजों का कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं था, यह पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि मिशनरियों की पत्नियाँ जैसे कि मार्था मौल्ट नी मीड और उनकी बेटी एलिज़ा काल्डवेल नी मौल्ट को दक्षिण भारत में लड़कियों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिये आज भी याद किया जाता है ।देखा जाए तो समय-समय पर देश में महिलाओं के उत्थान में महती सहभागिता प्रदान की गई है।1829 में गवर्नर-जनरल विलियम केवेंडिश-बेंटिक के तहत राजा राम मोहन राय के प्रयास सती प्रथा के उन्मूलन का कारण बने। विधवाओं की स्थिति को सुधारने में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के संघर्ष का परिणाम “विधवा पुनर्विवाह” अधिनियम 1956 के रूप में सामने आया। कई महिला सुधारकों जैसे कि पंडिता रमाबाई ने भी महिला सशक्तीकरण के उद्देश्य को हासिल करने में मदद की।
कर्नाटक में कित्तूर रियासत की रानी, कित्तूर चेन्नम्मा ने समाप्ति के सिद्धांत (डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। तटीय कर्नाटक की महारानी अब्बक्का रानी ने 16वीं सदी में हमलावर यूरोपीय सेनाओं, उल्लेखनीय रूप से पुर्तगाली सेना के खिलाफ़ सुरक्षा का नेतृत्व किया। झाँसी की महारानी रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 के भारतीय विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आज उन्हें सर्वत्र एक राष्ट्रीय नायिका के रूप में माना जाता है। अवध की सह-शासिका बेगम हज़रत महल एक अन्य शासिका थी जिसने 1857 के विद्रोह का नेतृत्त्व किया था। उन्होंने अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी से इनकार कर दिया और बाद में नेपाल चली गयीं।भोपाल की बेगमें भी इस अवधि की कुछ उल्लेखनीय महिला शासिकाओं में शामिल थीं। उन्होंने परदा प्रथा को नहीं अपनाया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण भी लिया,1917 में महिलाओं के पहले प्रतिनिधिमंडल ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों की माँग के लिये विदेश सचिव से मुलाक़ात की जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 1927 में “अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन” का आयोजन पुणे में किया गया था।1929 में मोहम्मद अली जिन्ना के प्रयासों से “बाल विवाह निषेध” अधिनियम को पारित किया गया जिसके अनुसार एक लड़की के लिये शादी की न्यूनतम उम्र चौदह वर्ष निर्धारित की गयी थी। भारत की आज़ादी के संघर्ष में महिलाओं ने महत्त्पूर्ण भूमिका निभायी।भिकाजी कामा, डॉ॰ एनी बेसेंट, प्रीतिलता वाडेकर, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरुना आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गाँधी कुछ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल हैं। अन्य उल्लेखनीय नाम हैं मुथुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख आदि. सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की झाँसी की रानी रेजीमेंट कैप्टेन लक्ष्मी सहगल सहित पूरी तरह से महिलाओं की सेना थी। भारत कोकिला और स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला और भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल थीं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में महिलाएँ अब सभी तरह की गतिविधियों जैसे कि शिक्षा, राजनीति, मीडिया, कला और संस्कृति, सेवा क्षेत्र, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदि में हिस्सा ले रही हैं। इंदिरा गांधी जिन्होंने कुल मिलाकर पंद्रह वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में सेवा की, दुनिया की सबसे लंबे समय तक सेवारत महिला प्रधानमंत्री हैं। भारत में नारीवादी सक्रियता ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान रफ़्तार पकड़ी। महिलाओं के संगठनों को एक साथ लाने वाले पहले राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में से एक मथुरा बलात्कार का मामला था। शराब की लत को भारत में अक्सर महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जोड़ा जाता है, महिलाओं के कई संगठनों ने आँध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में शराब-विरोधी अभियानों की शुरुआत की। कई भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के तहत महिला अधिकारों के बारे में रूढ़िवादी नेताओं की व्याख्या पर सवाल खड़े किये और तीन तलाक की व्यवस्था की आलोचना की जो आज भी मुस्लिम महिलाओं की त्रासदी का कारण है। 1990 के दशक में विदेशी दाता एजेंसियों से प्राप्त अनुदानों ने नई महिला-उन्मुख गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ) के गठन को संभव बनाया। “स्वयं-सहायता” समूहों एवं “सेल्फ इम्प्लॉयड वुमेन्स एसोसिएशन” (सेवा) जैसे एनजीओ ने भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक प्रमुख भूमिका निभाई है। कई महिलाएँ स्थानीय आंदोलनों की नेताओं के रूप में उभरी हैं। उदाहरण के लिए, नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर ।भारत सरकार ने 2001 को महिलाओं के सशक्तीकरण (स्वशक्ति) वर्ष के रूप में घोषित किया था। महिलाओं के सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 में पारित की गयी थी।इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए ताकि देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थान और समुचित विकास की आधारभूत विशेषताओं को निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के समान महिलाओं के समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं के सैद्धान्तिक तथा वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में महिलाओं की पुरुषों के समान भागीदारिता पर बल दिया गया है। 2006 में बलात्कार की शिकार एक मुस्लिम महिला इमराना की कहानी मीडिया में प्रचारित की गयी थी। इमराना का बलात्कार उसके ससुर ने किया था। कुछ मुस्लिम मौलवियों की उन घोषणाओं का जिसमें इमराना को अपने ससुर से शादी कर लेने की बात कही गयी थी, व्यापक रूप से विरोध किया गया और अंततः इमराना के ससुर को 10 साल की कैद की सजा दी गयी। कई महिला संगठनों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा इस फैसले का स्वागत किया गया। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन बाद, 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को पारित कर दिया जिसमें संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है। इतना होने के बावजूद भी महिलाएँ पूर्णरूपेण स्वतंत्र रूप से उभर कर सामने नहीं आ पाईं क्योंकि समय के साथ-साथ समाज में पुरुषवादी मानसिकता अपनी जड़ें जमाती चली गई और कुछ हद तक स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चार दीवारी तक सिमट कर रह गया । रूढिवादी परंपराओं व कुंठित मानसिकता के परिणामस्वरूप आज भी अनगिनत अजन्मी कन्याओं की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। बढ़ती आबादी वाले प्रदेशों में बेरोज़गारी,अशिक्षा आर्थिक पिछड़ेपन ने परिवार की परिपाटी को हिला कर रख दिया है, जिसके फलस्वरूप आए दिन सामाजिक, आर्थिक ,मानसिक शोषण जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं।बालिकाओं के जिन हाथों में किताब होनी चाहिए वे हाथ दूसरों की जूठन उठाते , चूल्हा फूँकते नज़र आते हैं। क्या भविष्य होगा ..देश के इन मासूम चेहरों का? ” लड़का -लड़की एक समान” की मुहीम चलाने वाले कई घरों में आज भी कोमल कली कन्या को जन्म से ही पुत्री के रूप में पिता पर, युवावस्था में पत्नी के रूप में पति पर और वृद्धावस्था में पुत्र पर आश्रित रहना पड़ता है।आज बदलते दौर की वैचारिक स्वतंत्रता ने पारदर्शिता का जामा पहन कर पुरुष प्रधान समाज की रूढ़िवादी सोच को नारी के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व से रू-ब-रू करा दिया है। संयुक्त परिवार वैयक्तिक इकाइयों में विघटित हो गया है परिणामस्वरूप पति -पत्नी एक -दूसरे के पूरक बन कर गृहस्थ जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-“किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं की स्थिति। हमें महिलाओं को ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए , जहाँ वे अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता है उन्हें उपयुक्त अवसर प्रदान करने की।इसी आधार पर भारत के उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ सन्निहित हैं।” आज धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, सभी क्षेत्रों में नारी का वर्चस्व दिखाई देता है।पर अफ़सोस….नारी की स्वतंत्रता ने ही उसे अंधी दौड़ में शामिल कर सामाजिक दायरों को भुलाने पर मजबूर कर दिया। ऊँचा ओहदा,झूठा मान-सम्मान पाने की चाहत ने आधुनिकता के नाम पर पहनावे में टाइट जींस, शार्ट मिनी स्कर्ट्स को जन्म दिया । पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभाव ने नारी की सोच पर भौतिकवादी चश्मा चढ़ा दिया फलस्वरूप नारी ने धीरे -धीरे हया का झीना पर्दा उतार कर जीवन में पाश्चात्य संस्कृति को अपना लिया।देर तक घर के बाहर रहना, ऑफ़िस में पार टाइम ड्यूटी करना, बॉस को खुश रखना, सज-सँवर कर पब में जाना, देर रात तक खुले आम ब्वाय फ्रैंड के साथ घूमना ,फिल्म देखना परिणाम है दरिंदगी की सीमा लाँघने वाले “दामिनी कांड” का। आधुनिक युग में चमकते हीरे बनने की लौलुपता में भारतीय संस्कृति व संस्कार विलुप्त होते जा रहे हैं। समाज की अंत:चेतना गृहस्थाश्रम को माना गया है।आज अनियंत्रित, भौतिकवादी अंध परंपराओं व बेरोज़गारी के कारण गृहस्थ जीवन में कुसंस्कारों ने गहराई तक अपनी जड़ें जमा ली हैं।अशिष्टता, अनैैतिक व्यवहार,हानिकारक व्यसन, चारित्रिक पतन इन्हीं का दुष्परिणाम है जिसकी ज़िम्मेदार हमारी अविवेकपूर्ण विचारधारा है। कहते हैं एक पुरुष को पढ़ाने से एक व्यक्ति शिक्षित होता है। यदि एक स्त्री को शिक्षा दी जाए तो पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है। स्त्री को परिवार की धुरी कहा गया है।वह परिवार के प्रति अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का निर्वहन पूरी ज़िम्मेदारी से करती है। परिवार शिशु की प्रथम पाठशाला है।माँ बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण कर उनका सही पथ प्रदर्शन करती है।समाज की रूढ़िवादी कुरीतियों का दृढ़ता पूर्वक विरोध करते हुए वह जीने के नए मापदंडों को अपनाती है और समाज व देश की उन्नति में अपनी सहभागिता प्रदान करती है। आर्थिक दृष्टि से नारी अर्थचक्र के केन्द्र की ओर बढ़ रही है। विज्ञापन की दुनिया में महिलाएँ बहुत आगे हैं। बहुत कम ही ऐसे विज्ञापन होंगे जिनमें महिला न हों लेकिन विज्ञापन में अश्लीलता चिन्तन का विषय है। इससे समाज में विकृतियाँ भी बढ़ रही हैं। अर्थशास्त्र ने समाजशास्त्र को बौना बना दिया है।
आज महिलाएँ राजनीति, कारोबार, कला तथा नौकरियों में पहुँचकर नये आयाम गढ़ रही हैं।आज से कुछ साल पहले जिन खेलों में नारियों को कमजोर बताकर उन्हें खेलने से रोका जाता था आज उन्ही खेलों में मेरी कॉम (Mary Kom) ने सफलता का परचम लहराकर देश का नाम रोशन किया | गीता फोगाट, पीवी सिंधु, सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, साक्षी मलिक आदि जैसी महिलाए खेल जगत की गौरवपूर्ण पहचान है तो प्रियंका चोपड़ा, एश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, लारा दत्ता आदि महिलाओं ने सौन्दर्य प्रतियोगिता जीतकर अन्तराष्ट्रीय मंच पर भारत का नाम रौशन किया | भूमण्डलीकृत दुनिया में भारत और यहाँ की महिलाओं ने एक नितांत सम्मानसूचक जगह कायम कर ली है। आँकड़े दर्शाते हैं कि प्रतिवर्ष कुल परीक्षार्थियों में 50 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण करती हैं। आजादी के बाद लगभग 12 महिलाएँ विभिन्न राज्यों की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। भारत के अग्रणी सॉफ्टवेयर उद्योग में 21 प्रतिशत पेशेवर महिलाएँ हैं। फ़ौज, राजनीति, खेल, पायलट तथा उद्योग धंधों जैसे सभी क्षेत्रों में जहाँ पहले महिलाओं के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी वहाँ सिर्फ नारी ने स्वयं को स्थापित ही नहीं किया बल्कि सफल भी रही हैं।
जवाहर लाल नेहरू ने कहा है-“यदि आपको विकास करना है तो महिलाओं का उत्थान करना होगा । महिलाओं का विकास होने पर समाज का विकास स्वतः हो जाएगा।”
महिलाओं को शिक्षा देने तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिये जो सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ उससे समाज में एक नयी जागरूकता उत्पन्न हुई है। बाल-विवाह, भ्रूण-हत्या पर सरकार द्वारा रोक लगाने का अथक प्रयास हुआ है । शैक्षणिक गतिशीलता से नारी जीवन में आशातीत परिवर्तन हुआ है।
अब प्रश्न उठता है कि नारी की शिक्षा का स्वरूप कैसा हो?यूँ तो पुरुषों की भाँति नारी भी शिक्षा प्राप्त कर रही है लेकिन आधुनिक युग में नारी के बढ़ते वर्चस्व व कार्यक्षेत्र को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवेश , राजनैतिक, संवैधानिक, शैक्षणिक क्षेत्रों में बदलाव अपेक्षित है।आज की आत्मविश्वासी, स्वालंबी नारी के लिए बुनियादी शिक्षा के साथ- साथ गृहविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, नैतिक शिक्षा, योग शिक्षा, जूडो कराटे, जैसे विषयों का प्रशिक्षण अत्यंत आवश्यक है ताकि नारी घर-बाहर का दायित्व भली-भाँति सँभालते हुए स्वाभिमान से जी सके , कुंठित मानसिकता से बच सके, आर्थिक सहयोग के साथ-साथ अपने गृहस्थ जीवन को खुशहाल बना सके।यहाँ आर्थिक सहयोग का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करते हुए परिवार व बच्चों का दायित्व किसी अन्य के हाथों में सौंप कर खुद ज़िम्मेदारियों से विमुख हो जाएँ।नारी का कर्त्तव्य है कि वह अपनी नई पौध में संस्कारों की खाद डाल कर, नैतिक मूल्यों की जड़ों को परिपक्वता प्रदान करके सुसंस्कृत, सुसमृद्ध , सुदृढ़ वटवृक्षों का बीजारोपण करे । इससे परिवार, गाँव ,देश सुयोग्य नागरिक पाकर गौरवान्वित हो सकेगा।शिक्षा नारी में विनम्रता, सहजता, सरलता, क्षमाशीलता, सहनशीलता का भाव जगाती है। पति-पत्नी एक सिक्के के दो पहलू की भाँति एक दूसरे के पूरक हैं।जहाँ पत्नी घर-बाहर दोहरे दायित्व का सफलता पूर्वक निर्वाह करते हुए चुनौतियाँ स्वीकार कर रही है वहीं पति भी शिक्षित ,रूपवर्णा,सौम्य, सुगढ़, स्वावलंबी पत्नी का हाथ थाम करके ,उसका मान-सम्मान कायम रखते हुए गौरव का अनुभव कर रहे हैं।
ये है आज की नारी जो देश, समाज, राज्य में अपना वर्चस्व स्थापित करके सशक्त नारी के रूप में सामने आई है। आइए , हम सब महिलाएँ अनैतिक, अशिष्ट सोच से ऊपर उठ कर एकजुटता से “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” को सार्थकता प्रदान करें और ये शपथ लें कि हम विभिन्न क्षेत्रों में आगे आकर परिवार, समाज, देश का गौरव बढ़ाएँगे। डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”

Language: Hindi
Tag: लेख
929 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
View all
You may also like:
शरद पूर्णिमा पर्व है,
शरद पूर्णिमा पर्व है,
Satish Srijan
मोलभाव
मोलभाव
Dr. Pradeep Kumar Sharma
स्वतंत्रता और सीमाएँ - भाग 04 Desert Fellow Rakesh Yadav
स्वतंत्रता और सीमाएँ - भाग 04 Desert Fellow Rakesh Yadav
Desert fellow Rakesh
आज यूँ ही कुछ सादगी लिख रही हूँ,
आज यूँ ही कुछ सादगी लिख रही हूँ,
Swara Kumari arya
💐Prodigy Love-46💐
💐Prodigy Love-46💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
रुलाई
रुलाई
Bodhisatva kastooriya
कहां से कहां आ गए हम....
कहां से कहां आ गए हम....
Srishty Bansal
The wrong partner in your life will teach you that you can d
The wrong partner in your life will teach you that you can d
पूर्वार्थ
**** फागुन के दिन आ गईल ****
**** फागुन के दिन आ गईल ****
Chunnu Lal Gupta
खुदा ने ये कैसा खेल रचाया है ,
खुदा ने ये कैसा खेल रचाया है ,
Sukoon
Mai deewana ho hi gya
Mai deewana ho hi gya
Swami Ganganiya
■ बड़ा सवाल ■
■ बड़ा सवाल ■
*Author प्रणय प्रभात*
"लोभ"
Dr. Kishan tandon kranti
दुखद अंत 🐘
दुखद अंत 🐘
Rajni kapoor
*गाओ हर्ष विभोर हो, आया फागुन माह (कुंडलिया)
*गाओ हर्ष विभोर हो, आया फागुन माह (कुंडलिया)
Ravi Prakash
ज्ञात हो
ज्ञात हो
Dr fauzia Naseem shad
कभी फुरसत मिले तो पिण्डवाड़ा तुम आवो
कभी फुरसत मिले तो पिण्डवाड़ा तुम आवो
gurudeenverma198
आ गई रंग रंगीली, पंचमी आ गई रंग रंगीली
आ गई रंग रंगीली, पंचमी आ गई रंग रंगीली
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
उगते हुए सूरज और ढलते हुए सूरज मैं अंतर सिर्फ समय का होता है
उगते हुए सूरज और ढलते हुए सूरज मैं अंतर सिर्फ समय का होता है
Annu Gurjar
*जन्म या बचपन में दाई मां या दाया,या माता पिता की छत्र छाया
*जन्म या बचपन में दाई मां या दाया,या माता पिता की छत्र छाया
Shashi kala vyas
जिन्दगी के रंग
जिन्दगी के रंग
Santosh Shrivastava
देखिए आईपीएल एक वह बिजनेस है
देखिए आईपीएल एक वह बिजनेस है
शेखर सिंह
प्रेम का दरबार
प्रेम का दरबार
Dr.Priya Soni Khare
भले ई फूल बा करिया
भले ई फूल बा करिया
आकाश महेशपुरी
सामाजिक क्रांति
सामाजिक क्रांति
Shekhar Chandra Mitra
🍁
🍁
Amulyaa Ratan
2488.पूर्णिका
2488.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
दिल के रिश्ते
दिल के रिश्ते
Surinder blackpen
कहमुकरी
कहमुकरी
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
*छंद--भुजंग प्रयात
*छंद--भुजंग प्रयात
Poonam gupta
Loading...